आज कहानी तालिबान की उस बर्बरता की जिसमें अफगानिस्तान के राष्ट्रपति नजीबुल्लाह घिर गए थे। केवल घिरे ही नहीं बल्कि उन्हें अपनी जान भी गंवानी पड़ी। दरअसल, मार्च 1992 में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति नजीबुल्लाह ने अपने पद से इस्तीफा देने की बात कही थी। नजीबुल्लाह चाहते थे कि यदि कोई उनका विकल्प बन जाए तो वह इस्तीफा दे देंगे। वह नहीं चाहते थे कि देश व आम जनता को असमंजस की स्थिति में छोड़ा जाए।

नजीबुल्लाह के पास एक कारण और था कि 1989 में सोवियत सेना के वापस जाने के बाद उनकी पकड़ देश पर कमजोर हो रही थी। क्योंकि नजीबुल्लाह के खिलाफ कई गुट अपना विरोध जता रहे थे और वह उन्हें सत्ता से हटाने का भरसक प्रयास कर रहे थे। मार्च-अप्रैल 1992 में अफगानिस्तान में हालात सही नहीं थे, इसलिए नजीबुल्लाह ने अप्रैल, 1992 के शुरुआती दिनों में ही अपनी पत्नी और बेटियों को भारत भेज दिया था।

नजीबुल्लाह भी लगातार इस गुपचुप तरीके से भारत आने की कोशिश में थे, लेकिन वह तालिबान के बढ़ते कदम के चलते काबुल एयरपोर्ट नहीं पहुंच सके थे। इसके बाद उन्होंने घर जाने के बजाय संयुक्त राष्ट्र के कंपाउंड को ज्यादा सुरक्षित समझा। उधर यूएन के साथ मिलकर भारत नजीबुल्लाह को निकालने के प्रयास में था। हालांकि, उस समय दुविधा बड़ी थी क्योंकि ये दोनों ही पक्ष (यूएन और भारत) तालिबान के साथ सही से बातचीत नहीं कर पाए।

संयुक्त राष्ट्र के कंपाउंड में जाने से पहले नजीबुल्लाह भारतीय दूतावास में ठहरने वाले थे लेकिन भारत सरकार ने उन्हें शरण देने से मना कर दिया। सरकार का मानना था कि नजीबुल्लाह को शरण देने का मतलब अफगानिस्तान में रह रहे भारतीयों को आग में जिंदा झोंक देने जैसा साबित हो सकता था। हालांकि, ईरान और पकिस्तान ने नजीबुल्लाह को मदद की पेशकश की थी। लेकिन नजीबुल्लाह ने कहा कि पाक और ईरान से मदद के बजाए वह मरना ज्यादा पसंद करेंगे।

नजीबुल्लाह संयुक्त राष्ट्र के कंपाउंड में करीब साढ़े चार सालों तक रहे, लेकिन 27 सितंबर 1996 को तालिबान के लड़ाकों ने यूएन के ऑफिस पर हमला बोल दिया। इस घटनाक्रम में तालिबानी लड़ाकों ने पहले नजीबुल्लाह को उनके कमरे से बाहर निकालकर पीटा और फिर उन्हें गोली मार दी। इसके बाद नजीबुलाह के शव के साथ भी तालिबानी लड़ाकों ने बर्बरता की और क्रेन के सहारे बॉडी को एक लैंप पोस्ट पर टांग दिया।