जब भी हम कभी किसी जुर्म से जुड़ी खबर पड़ते हैं तो अक्सर गौर करते हैं कि आरोपी को अदालत ने दो हफ्ते की ज्यूडिशियल कस्टडी में भेजा है। ऐसे में आज जानते हैं कि आखिर अदालत क्यों दो हफ्ते की ही ज्यूडिशियल कस्टडी में भेजती हैं और इसके पीछे क्या कोई नियम है।

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आखिर क्या होती है कस्टडी?

कस्टडी को सामान्य तौर पर किसी दूसरे व्यक्ति पर नियंत्रण माना जाता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत किसी भी व्यक्ति को निजी आजादी के अधिकार दिए गए हैं लेकिन कस्टडी उसमें दखल देने की प्रक्रिया है। चूंकि, निजी आजादी के दुरुपयोग की आशंका होती है इसलिए कस्टडी के लिए सीआरपीसी की धारा 167 में कई नियम-कानून दर्ज हैं।

कस्टडी और गिरफ्तारी में फर्क

अक्‍सर लोगों के बीच इस बात को लेकर भ्रम रहता है कि कस्टडी और गिरफ्तारी एक ही बात है। दरअसल, इन दोनों में काफी अंतर होता है। कस्टडी, गिरफ्तारी के बाद मिलती है हालांकि जरूरी नहीं है कि हर केस में ऐसा हो। उदहारण के तौर पर अगर देखा जाए तो यदि कोई आरोपी अदालत में आत्मसमर्पण करता है तो उसे पुलिस गिरफ्तार करके नहीं लाती है।

ज्यूडिशियल कस्टडी कैसे मिलती है?

पुलिस जब किसी को संज्ञेय अपराध के शक में गिरफ्तार करती है तो पुलिस कस्टडी होती है लेकिन पुलिस किसी को बिना कोर्ट की मंजूरी के कस्टडी में 24 घंटे से ज्यादा तक नहीं रख सकती है। नियमानुसार, किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने/गिरफ्तार करने के बाद पुलिस को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना होता है। ऐसे में अदालत या तो उसे पुलिस कस्टडी में भेज देती है या फिर ज्यूडिशियल कस्टडी में भेजती है।

क्या है समयावधि?

यदि किसी आरोपी को गिरफ्तार कर पेश किया गया है तो आरोपी को पहले 15 दिन के लिए पुलिस कस्टडी में भेजा जा सकता है। इन 15 दिनों के बाद फिर केवल ज्यूडिशियल कस्टडी में ही भेजा जाता है। गंभीर मामलों (फांसी, उम्रकैद या 10 साल से अधिक सजा वाले केस) में भी कस्टडी अधिकतम 3 महीने तक होती है। पुलिस को इन्ही दिनों में अपनी जांच पूरी करनी होती है। अन्य केस में यह समय सीमा 2 महीने होती है।