हिंदी साहित्य अपने बौद्धिक तेवर के कारण नहीं बल्कि लोक सरोकारों के कारण विलक्षण है। यही कारण है कि लोक और परंपरा हिंदी आलोचना के बीज शब्द हैं। लोक के साथ कल्याण का अभिप्राय आरंभ से जुड़ा रहा है। लोक के साथ एक और बात जो गहरे तौर पर जुड़ी है, वह है उसकी रागात्मकता। देश में कोरोना से जब कुछ ही मौत हुई थी, तब से मैथिली, भोजपुरी, अंगिका, अवधी, बुंदेली और राजस्थानी जैसी बोलियों-भाषाओं में इस महामारी को लेकर गीत न सिर्फ बनने शुरू हो गए बल्कि लोकप्रिय भी होने लगे।
देश जब पिछले साल पूर्णबंदी का समाना कर रहा था तो वह एक ऐसा तजुर्बा था, जिसकी इससे पहले कभी कल्पना नहीं की गई थी। लाखों लोगों को सड़कों पर लाचार सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलते देखना तो एक ऐसा अनुभव है जो देश में सरकारों को विकास और सभ्यता के किसी बड़े दावे से पहले लंबे समय तक आईना दिखाएंगी। ऐसे संकट के बीच प्रवासी मजदूरों की गहरी पीड़ा उनके ही बीच से टेर बनकर गूंजी। कहीं शहरों में बंद किवाड़ों पर इंसानी सरोकारों ने दस्तक दी तो कहीं रोटी और गरीब की दूरी पर तीखा तंज दिल से उभरा। हालात इन टेरों से तो क्या बदलेंगे पर यह जरूर दिखा कि करुणा और कोरोना के बीच करुणा का पलड़ा अब भी भारी है।
कोरोना के बड़े संकट के बीच अगर भारत आज एक ऐसे देश के तौर पर समाने आया जो एक तरफ इस आपद स्थिति से जूझ रहा है, वहीं दूसरी तरफ इस महामारी की क्रूर आकस्मिकता और उसकी विदाई की लोककामना को सजल भाव से गाना भी सीख रहा है। अखबारों, टीवी चैनलों पर आज अगर ऐसी खबरें आ रही हैं कि लोग खुद से पहल करके महामारी के खतरों से उबरने के लिए एक-दूसरे की मदद के लिए आगे आ रहे हैं, तो यह कहीं न कहीं दिखाता है कि तमाम तरह की आफत और चुनौती के बीच मानवीय करुणा की सजलता बची हुई है।