कोरोना का संकट ऐसा है कि इससे उबरने में सालों लगेंगे। अभी तो इसे हम सिर्फ एक स्वास्थ्य समस्या के तौर पर देख रहे हैं पर इस समस्या पर अगर हमने देर-सबेर काबू पा भी लिया तो नई मुसीबतों का एक सघन और लंबा दौर सामने होगा। इसमें सबसे बड़ा संकट होगा प्रकृति के साथ नए सिरे से तालमेल बिठाने की चुनौती और विकास व अर्थव्यवस्था का सुरक्षित रास्ता। गौरतलब है कि औद्योगिक क्रांति से लेकर वैश्वीकरण तक दुनिया अगर कहीं एक सीध में बढ़ती दिखाई देती है तो वह सीध है अंधाधुंध मशीनीकरण और अनियंत्रित शहरीकरण की। कोरोना संकट के बीच आज उन शहरों की राशन-पानी की पूरी व्यवस्था सबसे ज्यादा चरमराई है, जिन्होंने अनजाने ही परावलंबन को अपने ड्राइंग रूम और रसोई तक में खुशी जगह दी है।
‘यंग इंडिया’ में 20 दिसंबर, 1928 को गांधी लिखते हैं, ‘ईश्वर न करे कि भारत भी कभी पश्चिमी देशों के ढंग का औद्योगिक देश बने। एक अकेले इतने छोटे से द्वीप (इंग्लैंड) का आर्थिक साम्राज्यवाद ही आज संसार को गुलाम बनाए हुए है। तीस करोड़ आबादी वाला हमारा राष्ट्र भी अगर इसी प्रकार के आर्थिक शोषण में जुट गया तो वह सारे संसार पर एक टिड्डी दल की भांति छाकर उसे तबाह कर देगा।’ गांधी अपनी इस पूरी समझ में गांव और गरीब के हक में इस लिहाज से भी खड़े दिखते हैं कि वे हमेशा गांवों की रचनात्मक ताकत को रेखांकित करते हैं और इसे ही वे भविष्य के भारत की ताकत बनाना चाहते हैं। 23 जून, 1946 को ‘हरिजन’ में एक आलेख में वे कहते हैं, ‘ग्रामीण रक्त ही वह सीमेंट है, जिससे शहरों की इमारतें बनती हैं।’ औद्योगिक क्रांति ने उत्पादन के जिस अंबार और उसके असीमित अनुभव के लिए हमें प्रेरित किया, उसकी पूरी बुनियाद मजदूरों के शोषण पर टिकी थी। दिलचस्प है कि ज्यादा उत्पादन और असीमित उपभोग को जहां आगे चलकर विकास का पैमाना माना गया, वहीं प्राकृतिक संपदा के निर्मम दोहन को लेकर सबने एक तरफ से आंखें मूंदनी शुरू कर दी।
कार्ल मार्क्स ने उत्पादन-उपभोग की इस होड़ में मजदूरों के शोषण को तो देखा, लेकिन मनुष्येतर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को, मशीनीकरण की आंधी से उजड़ते यूरोप को वे नहीं देख सके। इसे अगर किसी ने देखा तो वे थे गांधी। गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ में साफ शब्दों में कहा, ‘मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं और वहां की हवा अब हिंदुस्तान में चल रही है। यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी है और वह महापाप है। मशीन की यह हवा अगर ज्यादा चली, तो हिंदुस्तान की बुरी दशा होगी।’
गांधीवादी अर्थ दृष्टि को तार्किक आधार देने वाले डॉ. जेसी कुमारप्पा ने मशीनीकरण के कारण शोषण और उपभोग के बढ़ने की बात कहते हैं। वे सहयोग के साथ जरूरी आवश्यकता की पूर्ति को मनुष्य के विकास और कल्याण की कसौटी मानने की वकालत करते हैं। सहयोग और आवश्यकता के मेल से स्वावलंबी आर्थिक स्थायित्व को तो पाया ही जा सकता है, प्राकृतिक असंतुलन जैसे बड़े खतरे से भी बचा जा सकता है। कहने की जरूरत नहीं कि विकास को होड़ की जगह सहयोग के रूप में देखने वाली गांधीवादी दृष्टि विकास और जीवन मूल्यों को अलगाकर नहीं बल्कि साथ-साथ देखने पर जोर देती है। विकास के इन अहिंसक मूल्यों की अवहेलना महामारी जैसे बड़े खतरे को न्योता है। ल्ल