निर्भया सोलह दिसंबर 2012 को दिल्ली में एक जघन्यतम अपराध का शिकार होकर मारी गई। उस घटना पर एक वृत्तचित्र बना। उसमें इस मामले में एक अपराधी के बयान की चर्चा सोशल मीडिया और समाचार संसार में होती रही। लोगों ने बीबीसी की भी आलोचना की कि इस घटना को भुनाने के लिए उसने यह फिल्म बनाई।
खैर, मैंने फिल्म देखी। देखते हुए कई बार रोना आया। अपराधी ने जो बातें कहीं उस फिल्म में, उससे कई गुना गर्हित बयान उसके वकील ने टीवी चैनल पर दिए। अपराधियों में से अधिकतर अनपढ़, वंचित पृष्ठभूमि के थे। लेकिन वकील तो पढ़े-लिखे होते हैं! अपराधी के वकील का बयान था- ‘अगर मेरे परिवार की कोई लड़की ऐसा करेगी तो उसको जला देने में उसे कोई संकोच नहीं होगा।’
निर्भया के पिता उसे जज बनाना चाहते थे। लेकिन वह डॉक्टर बनना चाहती थी। पिता से उसने कहा कि डॉक्टर से बड़ा कोई पेशा नहीं होता। पढ़ाई में पैसे की कमी की बात आई तो उसने कहा कि आप जो पैसे मेरी शादी में खर्च करना चाहते हों, उससे मेरी पढ़ाई करा दें।
उसके माता-पिता मान गए। खर्च के लिए पैसे की कमी को वह पार्ट टाइम नौकरी करके पूरा करती थी और सिर्फ चार-पांच घंटे सोती थी। वह कहती थी- ‘एक लड़की कुछ भी कर सकती है।’ एक बार एक दस-बारह साल का लड़का निर्भया का पर्स छीन कर भाग रहा था। उसे पकड़ कर पुलिस वाले ने पीटा। उसने उस लड़के को पुलिस वाले से छुड़ाया और उससे पूछा- ‘तुम यह क्यों करते हो?’ लड़के ने कहा- ‘तुम लोगों जैसे कपड़े पहनने का मन होता है… खाने का मन होता है…!’
निर्भया ने उससे वादा कराया कि वह दुबारा चोरी नहीं करेगा। इसके बाद उसने उस बच्चे को कई खाने की चीजें खरीद कर दीं। शायद उन्हें देख कर ही खाने के लालच में उसने पर्स छीना होगा! अपने गांव में अस्पताल बनवाने का निर्भया का सपना अधूरा रह गया। निर्भया कोष के करोड़ों रुपए बिना उपयोग के रह गए। सरकार को उस बहादुर बच्ची का सपना पूरा करने के बारे में सोचना चाहिए।
यह फिल्म देख कर तमाम अपराधों की जड़ अपनी शिक्षा व्यवस्था, समाज की विषमता का फिर अहसास होता है। हम लोग अभी बहुत पिछड़े हैं समाज के हर तबके तक जीवन की न्यूनतम बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने के मामले में। स्त्रियों के बारे में अपने समाज के बहुत बड़े तबके का सोच सामंती है।
स्त्रियां उनके लिए घर-परिवार की जरूरतें पूरा करने का माध्यम हैं, बस! यह एक बेहद संवेदनशील फिल्म है, जिसे देख कर मन दुखी हो जाता है। यह अहसास होता है कि समाज में अपराधी कैसे बनते हैं। यह भी समझ में आता है कि विपरीत परिस्थितियों में इस समाज में लड़कियों का हौसला कैसा हो सकता है… कैसे वे तमाम अवरोधों को फलांग कर आगे बढ़ने का जज्बा रखती हैं।
फिल्म के बारे में बहुतों ने इस नजरिए से लिखा कि इससे समाज में गलत संदेश जाता है। पता नहीं लोगों को यह क्यों नहीं लगा कि यह फिल्म समाज की अनगिनत लड़कियों के मन में निर्भया जैसी बनने की ललक जगाएगी जो मां-बाप का सहारा बनना चाहती थी, एक कमउम्र चोर बच्चे को सुधारना चाहती थी और जिसकी सबसे बड़ी तमन्ना अपने गांव में अस्पताल खोलने की थी।
उन परिस्थितियों पर अफसोस होता है, जिनके चलते अपराधी पैदा होते हैं और सोचते हैं कि बलात्कार और हत्या में गलती लड़की की ही थी। फिल्म देख कर असमय शहीद हो गई लड़की के प्रति सम्मान का भाव पैदा होता है। रोशनी हमेशा अंधेरे पर भारी पड़ती है।
अनूप शुक्ला
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