वीएन प्रजापति

जनसत्ता 23 सितंबर, 2014: हाल ही में गुजरात की राजधानी गांधीनगर से लौटा हूं। एक प्रत्यक्षदर्शी के तौर पर मैं जो जान और समझ सका, वही बता सकता हूं। आज जबकि पूरे देश में विकास के ‘गुजरात मॉडल’ की काफी चर्चा है और प्रकारांतर से इसे थोपने की कोशिश की जा रही है तो गांधीनगर में इसी ‘मॉडल’ के एक पहलू की ओर मेरा ध्यान गया। किसी प्रदेश की राजधानी से वहां के रहन-सहन, आचार-विचार, लोगों के सोच और दिनचर्या को समझा जा सकता है। पूरे गांधीनगर में बिजली, रसोई गैस की अच्छी व्यवस्था है। सड़कें भी काफी अच्छी हैं। लेकिन मेरा ध्यान वहां की सामाजिक संरचना की ओर गया, जो विकसित की जा रही है। जब आप किराए पर मकान लेने के लिए जाते हैं तो आपको मकान मालिक के कम से कम तीन यक्ष प्रश्नों से होकर गुजरना पड़ता है। पहला, ‘आपनु रिलीजन’, यानी आपका धर्म क्या है? दूसरा, ‘आपनु कास्ट’, यानी आपकी जाति क्या है? तीसरा, ‘आपनु वेज या नॉन-वेज’, यानी आप शाकाहारी हैं या मांसाहारी? अगर आप मुसलिम हैं तो आपको मुसलिम क्षेत्र में ही कमरा मिल सकता है, क्योंकि हिंदू मकान मालिक मुसलिम विद्यार्थियों को नहीं रखता। कुछ देर के लिए मान लीजिए कि आपने हिंदू पहचान बताई, तब आपकी जाति! अगर आप किसी दलित कही जाने वाली जाति से हुए तो मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। अगर आपने खुद को ऊंची कही जाने वाली जाति का हिंदू बताया, लेकिन मांसाहारी, तब आपको मांसाहारी मकान मालिक ही किराए पर कमरा दे सकता है।

यह एक तरह से वर्ण-व्यवस्था का मॉडल है, जिसके सांचे में हमें ढालने की कोशिश की जा रही है। इस मॉडल में दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यकों के लिए कोई जगह नहीं है। अगर इन दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यकों को एक क्षेत्र तक ही सीमित कर दिया जाए तो एक ‘घेट्टो’ (अल्पसंख्यकों और हाशिये पर रहने वाले लोगों की ऐसी जगह, जहां बुनियादी सुविधाएं भी बड़ी मुश्किल से उपलब्ध हों!) बन कर रह जाएंगे। फिर अच्छी सड़कें, बिजली और रसोई गैस का क्या अर्थ है, जब एक बड़ी तादाद में लोगों को इसका लाभ ही न मिले। शाकाहारी-मांसाहारी का भेदभाव तो पूरे गांधीनगर में है। वहां के तथाकथित सभ्य समाज के लोगों का मानना है कि मांस से वातावरण में प्रदूषण होता है। यहां ‘शुद्धता’ और प्रदूषण का ऊंच-नीच की भावना से सीधा संबंध है। जिसका मतलब है शाकाहारी व्यक्ति वर्ण व्यवस्था में ऊपर है और मांसाहारी व्यक्ति नीचे।

मैं गांधीनगर और विश्व के प्रसिद्ध मंदिर अक्षरधाम भी गया। वहां कड़ी सुरक्षा-व्यवस्था है। मंदिर परिसर में पेप्सी, कोका-कोला, पित्जा, बर्गर, वाडीलाल, रेस्टोरेंट, वाटर पार्क/ वाटर बोट हैं। पाश्चात्य शैली में बने शौचालय भी हैं। जो लोग ‘भारत’ और ‘इंडिया’ में अंतर की बातें करते हैं और भारतीय संस्कृति का ठेका लेकर बैठे हैं, वे बताएं कि पेप्सी-कोकाकोला, पित्जा-बर्गर भारत के कितने और कौन-से लोगों के खान-पान का हिस्सा हैं। मंदिर परिसर में इन सब उत्पादों की भरमार मंदिर और बाजार के गठजोड़ को ही इंगित करती है। हम इस देश में वह ‘मॉडल’ अपनाना चाहते हैं जो वर्ण-व्यवस्था आधारित ‘मंदिर-मार्केट गठजोड़’ और भारतीय संस्कृति के नाम पर विदेशी संस्कृति और उत्पादों को बढ़ावा दे। हमें हजार बार सोचना पड़ेगा कि हमारे विकास का मॉडल क्या है, किन लोगों के लिए है और उस मॉडल के रचयिता कौन हैं!

 

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