पुष्यमित्र
जनसत्ता 25 सितंबर, 2014: हाल ही में एक दोपहर को जहानाबाद के धरनई गांव में बने मंच पर पंचायत प्रतिनिधि लोगों को एक ऐसी सेवा उपलब्ध करा रहे थे जो उनके लिए दो दशकों तक चौबीस घंटे रोजाना बिजली की गारंटी बनने वाली थी। उधर गांव में एक पक्के मकान में अपने कमरे के अंदर एक बुजुर्ग खाट पर लेट कर पंखे की हवा का आनंद ले रहे थे। गांव की औरतें बता रही थीं कि अब उनके घरों में बल्ब जलते हैं और मोबाइल भी चार्ज होता है। किसान बता रहे थे कि अगले साल धान के मौसम में खेत में पानी की भी किल्लत नहीं होगी। बारिश हो न हो, उनके खेतों को सोलर पंप से भरपूर पानी मिलेगा। ये घटनाएं धनरई के लोगों के लिए इसलिए बड़ी थीं, क्योंकि उन्होंने बिजली के लिए तीन दशकों तक इंतजार किया था। गांव में बिजली के पोल हैं, मगर तीस साल से कभी बिजली आई ही नहीं।
धनरई गांव में हुए इस प्रयोग के जरिए देश में शायद पहली बार एक पंचायत ने माइक्रो ग्रिड बिठा कर खुद को ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर घोषित कर दिया। दिलचस्प यह है कि गांव की रातों का अंधेरा दूर करने के लिए न किसी को एक इंच विस्थापित होना पड़ा, न पर्यावरण दूषित हो रहा है, न वे किसी कोल ब्लॉक की आपूर्ति पर आश्रित हैं और न ही उन्हें निरंतर आपूर्ति के लिए किसी एजेंसी का इंतजार करना पड़ेगा। यहां की रातों का अंधेरा गांव के आकाश में चमकने वाले सूरज ने मिटाया है। वैकल्पिक स्रोतों के जरिए देश और दुनिया का ऊर्जा दारिद्र्य मिटाने का सपना देखने वालों के लिए यह बड़ी जीत है। सोलर माइक्रो ग्रिड के निर्माण में कुल तीन करोड़ रुपए खर्च हुए हैं। इस योजना के क्रियान्वयन से जुड़ी संस्था ग्रीनपीस के प्रतिनिधि बताते हैं कि तीन करोड़ की राशि तो इतनी छोटी है कि इतना तो किसी गांव तक पोल, बिजली के तार और ट्रांसफार्मर लाने में खर्च हो जाते हैं। इस लिहाज से कहने को धरनई गांव का सालों पहले विद्युतीकरण हो चुका था। मगर तीस साल से गांव में बिजली कभी नहीं आई थी।
यह तथ्य है कि हमारा देश आज भी ऊर्जा संकट का कोई स्थायी समाधान नहीं तलाश पाया है। बिजली के नाम पर पहले बड़े बांध और अब थर्मल पावर स्टेशन ही विकल्प माने जाते हैं। यह ठीक है कि इन साधनों से सस्ती और बड़े पैमाने पर बिजली पैदा की जा सकती है। मगर परियोजनाओं का दुष्प्रभाव जानने के बाद वह सस्ती बिजली काफी महंगी मालूम पड़ती है। इन परियोजनाओं की वजह से लाखों परिवार विस्थापित होते हैं और बड़े पैमाने पर प्रदूषण फैलता है। इसी वजह से दुनिया भर में धीरे-धीरे सहमति बन रही है कि हम अपनी ऊर्जा जरूरतों को इन विनाशकारी परियोजनाओं से गैरपारंपरिक ऊर्जा उपायों की तरफ शिफ्ट करें। इसमें न विस्थापन का खतरा है, न प्रदूषण का। मगर यह सवाल भी उठता है कि ये परियोजनाएं क्या वास्तव में जमीन पर सुगमतापूर्वक संचालित की जा सकती हैं। जब ग्रीनपीस संस्था ने इस योजना की प्रस्तुति तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने की थी, तब उन्होंने कहा था कि यह आकर्षक तो लगती है, मगर क्या इसे जमीन पर उतारा जा सकता है। तब संस्था के लोगों ने कहा था कि वे इसे एक गांव में लागू करके दिखाएंगे, ताकि इस मॉडल को बिहार के बिजलीविहीन दूसरे हजारों गांवों में लागू किया जा सके। दो साल की अनवरत कोशिशों के बाद आखिरकार धरनई में यह प्रयोग सफल हुआ है। अब सरकार को तय करना है कि क्या वह इस मॉडल को अपनाने जा रही है!
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