रिम्मी
दिसंबर महीने की सोलह तारीख एक बार फिर इतिहास के पन्नों में एक तकलीफदेह रंग से भर चुकी है। दो साल पहले सोलह दिसंबर को ही दिल्ली की सड़कों पर वहशीपन और दरिदंगी का नंगा नाच दिखा था। तेईस साल की एक लड़की को बलात्कार और बर्बर हिंसा के बाद कड़कड़ाती ठंड में निर्वस्त्र, सड़क पर फेंक दिया गया था। जब हम सभी अपने-अपने घरों में रजाई में दुबक कर चैन की नींद सो रहे थे, तब वह खून से लथपथ सड़क पर पड़ी थी, हर आने-जाने वाले से मदद की गुहार लगाती हुई। रूह तो लोगों की तब भी कांपी थी और इस बार फिर कांपी, टीवी पर इस ‘ब्रेकिंग न्यूज’ के साथ कि पेशावर के एक सैनिक स्कूल में तालिबानी दहशतगर्दों ने एक सौ तीस बच्चों को मार डाला। यह तारीख फिर थोड़ी और स्याह हो गई। ‘निर्भया’ अपने दोस्त के साथ फिल्म देख कर लौट रही थी, पेशावर के स्कूल के वे बच्चे रोज की तरह अपनी दुनिया में मग्न हो परीक्षा दे रहे थे और सिडनी में कैफे में बैठे वे लोग अपने आप में मसरूफ थे। इनमें से बहुत सारे किसी के पागलपन और दरिंदगी की भेंट चढ़ गए।
ये मासूम जिंदगियां क्यों किसी की हैवानियत का शिकार हुर्इं? इस पर अब दुनिया भर में लोग दुख जताएंगे, जमकर तालिबान और आतंकवाद को कोसेंगे! दुनिया भर की सरकारें पाकिस्तान सरकार को लानतें भेजेंगी, पर इसका हल कोई नहीं देगा। थोड़ा आंसू बहा कर हम सब फिर से अपने काम में व्यस्त हो जाएंगे। अमेरिका तालिबान के खात्मे के नाम पर फिर से निरीह नागरिकों को बलि का बकरा बनाएगा। भारत के कुछ लोग हिंदू धर्म की रक्षा के नाम पर ‘घर वापसी’ में अपनी ताकत झोंकेंगे। हम जैसे लोग दो-चार पोस्ट लिख कर फिर से फेसबुक, व्हाट्स-एप पर अपनी प्रोफाइल फोटो बदलने में रम जाएंगे या फिर चाय की चुस्कियों के साथ इन खबरों का जिक्र करेंगे। कुछ नहीं बदलेगा। जिनका बदलेगा वह बस उन पीड़ित परिवारों का, जिनकी दुनिया खत्म हो गई, आंखों के सपने छिन गए! हम वही रहेंगे, भीतर से खोखले, डरपोक, स्वार्थी इंसान, क्योंकि हमारे लिए धर्म, जाति, मजहब, राम और रहीम मानवता से बड़े हैं। इतने बड़े कि इसके लिए हम मासूम बच्चों के कत्लेआम से भी नहीं हिचकते।
मलाला को शांति का नोबेल पुरस्कार किसी वीरता के लिए नहीं मिला, बल्कि शिक्षा के प्रति उसकी लगन के लिए मिला। उस दृढ़ता के लिए, जिसके सहारे उसने बहुत सारी मुश्किल बाधाओं को पार किया। उसने साबित किया की बंदूक का सामना कलम से किया जा सकता है। उसने हमें बताया की एक कलम, एक किताब, एक शिक्षक इस दुनिया की तस्वीर बदलने के लिए काफी हैं। पहले हर किसी को यह पेन, यह किताब तो मुहैया कराओ! उसने दिखाया की जाति, धर्म, अल्लाह और राम, इन सबसे बड़ी है दृढ़ता। जरूरत हर उन्माद का मुंहतोड़ जवाब देने की है। चाहे कोई हिंदू हो या मुसलिम, सिख या ईसाई, अंधभक्ति की जगह वैज्ञानिक सोच अपनाएं। इस छोटी-सी उम्र में मलाला अपने बुलंद जज्बे के सहारे मौत से लड़ सकती है तो क्या हम सब उसके जुनून का एक भी हिस्सा अपने में लाकर इस वीभत्स आतंक का जवाब नहीं दे सकते! हम अब यह करें कि बारूद का जवाब स्याही से दें और जो लोग वर्तमान को खून से रंगने में लगे हैं, उनके मंसूबों पर पानी फेरें!
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