आखिरकार 1993 में हुए मुंबई बम धमाकों के दोषी याकूब मेमन को फांसी दे दी गई। इस फांसी को रुकवाने के लिए देश की कई संस्थाएं और लोग लगे हुए थे। असल में फांसी एक ऐसा दंड है जिसे दिए जाने के बाद और कोई गुंजाइश बचती ही नहीं है इसलिए देश की स्थापित न्यायिक प्रक्रिया के तहत जो भी प्रावधान हैं उनके अंदर याकूब को बचाने की तमाम कोशिशें वाजिब थीं। इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

याकूब के परिवार को भी उसे फांसी से बचाने की कोशिशें करने का पूरा हक था। देश का संविधान और न्याय व्यवस्था उन्हें इसकी इजाजत देते हैं। मगर याकूब को बचाने के नाम पर एक खतरनाक तर्क दिया जा रहा था कि उसे फांसी की सजा इसलिए सुनाई गई क्योंकि वह एक खास मजहब से ताल्लुक रखता है। आमतौर पर विवाद भरे बयान देने वाले अबु आजमी और ओवैसी के ये तर्क निराधार ही प्रतीत हो रहे हैं।

यह तर्क खतरनाक ही नहीं अनुचित भी है। एक तरफ आप कहें कि देश की न्याय प्रक्रिया में आपकी पूरी आस्था है और दूसरी तरफ याकूब की फांसी को मजहबी और सांप्रदायिक आधार पर तोलें तो इसे क्या कहा जाए ? यह तो सुविधाजनित अवसरवादिता हुई न! हो सकता है कि आपकी जायज हमदर्दी याकूब और उसके परिवार के साथ रही हो, मगर इसके लिए ऐसे तर्क का सहारा कितना उचित है? सोचिए, इसके जरिए आप पूरे समाज को क्या बड़ा संदेश दे रहे हैं?

इसी कड़ी में यह भी कहा जा रहा है कि 1993 के मुंबई बम धमाकों की पृष्ठभूमि को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि ये विस्फोट अयोध्या में बाबरी ढांचा गिराए जाने के बाद हुए थे। इस बात की गहराई में जाने की जरूरत है। क्या ऐसा कह कर आप दुनिया में शहरी आतंकवाद की इस बर्बर और संभवत: पहली घटना को सही ठहराना चाहते हैं? एक तरफ आप कहें कि आतंकवाद का कोई धर्म या रंग नहीं होता और दूसरी तरफ आप सांप्रदायिक चश्मे से मजहबी तराजू पर आतंकी घटनाओं को तोलें तो इसे क्या कहा जाए? क्या किसी भी आधार पर मुंबई बम धमाकों को सही ठहराया जा सकता है? और फिर क्रिया-प्रतिक्रिया के इस सिद्धांत को आप कहां-कहां पर लागू करेंगे? इसका तो कोई अंत ही नहीं होगा। फिर तो देश का हर दंगा, हर आतंकी और आपराधिक गतिविधि इसी आधार पर सही बताई जा सकती है।

यह स्पष्ट है कि याकूब मेमन की फांसी के बहाने कुछ नेता जरूर अपनी रोटियां सेंक रहे हैं और वोट की राजनीति के फेर में नफरत की फसल बोने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में यह बहुत जरूरी हो जाता है कि देश का पढ़ने-लिखने वाला वर्ग आवेश में नहीं बल्कि धर्म और मजहब से ऊपर उठकर सोचे।

राहुल यादव ‘ग्वाल’, झांसी

 

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