अभी पंचायत चुनावों को लेकर शुरू हुई हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। यहां हिंसा मतदान के पहले ही शुरू हो जाती है और नतीजे आने के बाद भी जारी रहती है। पिछले विधानसभा चुनाव के समय तो इतने बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी कि विरोधी दलों के कार्यकर्ताओं और समर्थकों को जान बचाने के लिए पड़ोसी राज्य असम में शरण लेनी पड़ी थी।
इस भीषण हिंसा के कारण ममता सरकार को चौतरफा निंदा और बदनामी का सामना करना पड़ा था, लेकिन इससे उसकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा। बंगाल में राजनीतिक और चुनावी हिंसा की संस्कृति कायम रहना यही बताता है कि ममता बनर्जी परिवर्तन के जिस नारे के साथ सत्ता में आई थीं, वह दिखावटी था।
बंगाल में चुनाव की हिंसा पर इसलिए रोक नहीं लग पा रही है, क्योंकि ममता बनर्जी ने राजनीतिक विरोधियों के मामले में उन्हीं तौर-तरीकों का अपना लिया है, जो वामदलों की संस्कृति का हिस्सा थे। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि ममता वामदलों की जिस अराजक संस्कृति को खत्म करने के वादे के साथ सत्ता में आई थीं, उसे खुद उन्होंने अंगीकार कर लिया है? इसी कारण चुनावों के दौरान हिंसा बढ़ जाती है।
इस हिंसा के जरिए विरोधी दलों के प्रत्याशियों को नामांकन पत्र दाखिल करने से भी रोका जाता है। चिंताजनक है कि जब देश के अन्य हिस्सों में चुनावी हिंसा पर बड़ी हद तक अंकुश लग गया है, तब बंगाल में उस पर लगाम क्यों लगती नहीं दिखती।
सदन जी, पटना।
सुलगता मणिपुर
मणिपुर सुलग रहा है, अब भी स्थिति पूरी तरह से नियंत्रण में नहीं आ पाई है। जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। स्कूल, दुकानें, कालेज, उद्योग-धंधे सब तीन हफ्तों से बंद पड़े हैं। मणिपुर में शांति योजना के पांच सूत्र हैं- जिनमें मैराथन बैठकों के जरिए सुरक्षा सुनिश्चित करना, बातचीत की पहल, दोनों समुदायों की चिंताओं का हल, जमीन पर खुद उतरकर समुदायों में विश्वास बहाली, महिलाओं, युवाओं और सामाजिक संगठनों का साथ, एक तरफ बातचीत, दूसरी ओर सुरक्षाबलों को सख्त निर्देश।
पिछले दिनों केंद्रीय गृहमंत्री ने राज्य की प्रमुख हस्तियों, बुद्धिजीवियों, सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों के साथ-साथ महिला और युवा संगठनों के प्रतिनिधियों और सिविल सेवकों के साथ बातचीत की। कई समाजिक संगठनों के प्रतिनिधिमंडल से भी मुलाकात की। इस दौरान प्रतिनिधियों ने आश्वासन दिया कि सब साथ मिलकर मणिपुर में सामान्य स्थिति बहाल करने में अपना अपना योगदान देंगे।
म्यांमा से प्रवासियों की घुसपैठ को रोकने के लिए सीमावर्ती क्षेत्रों में अधिक निगरानी की व्यवस्था की जानी चाहिए। पड़ोसी देशों के साथ आर्थिक और राजनयिक संबंध सुदृढ़ करने से क्षेत्रीय स्थिरता और सुरक्षा बढ़ाने में मदद मिल सकती है। सरकार को क्षेत्र के लोगों में स्वामित्व और अपनेपन की भावना को बढ़ावा देने के लिए निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी भागीदारी को प्रोत्साहित करना चाहिए।
रवि रंजन, नई दिल्ली।
अशोभन भाषा
फिल्म जगत में बालीवुड जिस तरह अपनी साख खोता जा रहा है, वह निराश करने वाला है। हाल ही में भगवान श्रीराम की कथा पर बनी फिल्म आदिपुरुष ने बालीवुड के रहे-सहे सम्मान को भी खत्म कर दिया है। मर्यादा पुरुषोत्तम के जीवन चरित्र से जुड़ी कहानी में आधुनिकता की आड़ में भाषाई अभद्रता का प्रयोग करना आपत्तिजनक है।
रामकथा में उनके आदर्श समाज को दिशा देते हैं, जिनके उदाहरण देकर चारित्रिक नैतिकता का निर्माण किया जाता है, जो कथा भारत में संस्कारों का स्रोत है उसे आधुनिकता की चादर में लपेट कर अभद्र बना देना कैसे स्वीकार किया जा सकता है? इस फिल्म की पटकथा के लेखक महोदय से यह प्रश्न किया जाना चाहिए !
उन्होंने अष्टसिद्धियों से युक्त भगवान हनुमान की भाषा शैली में इतनी अभद्रता को किस आधार पर शामिल किया? क्या लेखक महोदय द्वारा तथाकथित तौर पर रचित आधुनिक हनुमान जी के चरित्र पर ‘ज्ञानिनाम् अग्रगण्यम्’ का वह विशेषण, जो गोस्वामी तुलसीदास द्वारा प्रयुक्त किया गया था, तृण मात्र भी उचित प्रतीत होता है?
हमारे पूज्यों और आदर्शों के चरित्र का ऐसा सार्वजनिक चीर-हरण अक्षम्य अपराध है। कृपया रामायण जैसे महान ग्रंथों के मूल्यों को अपनी अभद्र, अनैतिक और आधुनिक धनलोलुपता की भावना का शिकार मत बनाइए।
अनुभव सिंह, प्रयागराज।
संयम की जरूरत
मणिपुर में स्थिति विस्फोटक बनती जा रही है। करीब डेढ़ महीने पूर्व आरक्षण की मांग को लेकर कुकी और मैतेई समुदाय के बीच लगी आग दिन प्रतिदिन सुलगती जा रही है। मणिपुर में सुरक्षाबलों और भीड़ के बीच झड़पों में स्थानीय लोगों को चोटें आई हैं। सुरक्षाकर्मियों पर गोलियों की बौछार और आगजनी, तोड़फोड़ से मणिपुर की स्थिति दयनीय बनती जा रही है।
पुलिस चौकियों और नेताओं पर हमले से दहशत भरा माहौल है। मणिपुर को सुलगाने के लिए म्यांमा से विद्रोहियों को बुलाया गया है। इसमें एक ही समुदाय पर चोट की जा रही है। केंद्रीय गृहमंत्री ने तीन दिन तक रुक कर उपद्रवियों से शांति की अपील की। वह नहीं सुनी गई। अनेक लोगो की मौत का तांडव देश देख रहा है।
मगर इन विद्रोहियों का हंगामा शांत नहीं हो रहा है। यह आरक्षण की रीति नीति नहीं है, इसमें अलग ही बात की बू आ रही है। यह राजनीतिक लड़ाई का महत्त्वपूर्ण भाग हो सकता है। नगा, कुकी और मैतेई समाज की झड़पें होती रहती हैं। इसमें हर समुदाय सड़क पर आकर अपने हक की लड़ाई लड़ता है। लेकिन इस बार की लड़ाई अलग और साजिश का आभास हो रहा है।
यह राज्य तक ही सीमित नहीं है। यह राजनीति की उपज है। आरक्षण की आड़ में अपना उल्लू सीधा करने वाले भूल जाते हैं कि एक बार आग लगने के बाद सुलगती ही रहती है। उसमें कोई दूसरे जले या न जले स्वयं जरूर झुलसते हैं। संयम का पालन करना चाहिए। गोलियों की बौछारों में जीने वाले अपने आप को धोखा दे रहे हैं। हर समस्या का सामाधन है। लेकिन बंदूक के जोर पर नहीं, बातचीत से ही संभव है।
कांतिलाल मांडोत, सूरत।