उत्तराखंड के चमोली जिले में अलकनंदा नदी की एक सहायक नदी है विरही गंगा। सवा सौ साल पहले इस नदी में करीब की एक पहाड़ी टूट कर जा गिरी। बरसात के दिन थे और इस भूस्खलन ने तेज रफ्तार से बहती नदी का रास्ता रोक दिया। यह घटना जैसे ही ग्रामीणों ने अंगरेज अधिकारियों को दी तो वे हरकत में आ गए।
हरिद्वार के रायवाला में सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर पुलफोर्ड ने फौरन अपने इंजीनियर को मौके पर भेजा। स्थिति का जायजा लेने के बाद यह अनुमान लगाया गया कि इस झील को भरने में एक साल लग सकता है, लेकिन उसके बाद अगर झील फटी तो भयानक नतीजे हो सकते हैं। इस झील को गौना ताल नाम दिया गया।
ले. कर्नल ने अपने तकनीशियनों को झील पर तैनात कर दिया। इस झील से नीचे रायवाला तक पौने दो सौ किलोमीटर लंबी टेलीग्राफ की लाइन बिछाई गई। टेलीग्राफ लाइन के तारों को जंगलों में पेड़ों पर लगाया गया। लगातार झील की निगरानी चलती रही। इस बीच झील तीन किलोमीटर लंबी हो गई। यह झील भूवैज्ञानिकों के लिए भी कुतूहल का विषय रही। उस दौर के सबसे बड़े अंगरेज भूवैज्ञानिक हालात का जायजा लेने पहुंचे।
साल भर बाद इस झील के फटने का अनुमान लगाया गया। समय रहते ही अंगरेजों ने निचले इलाके से लोगों को हटाना शुरू कर दिया। लोगों को सुरक्षित जगहों पर भेज दिया गया। रास्ते में अलकनंदा नदी पर बने कुछ पुल हटा दिए गए। भारी बरसात के बीच यह बड़ी झील फूटी और वह चमोली, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर में तबाही मचाती हुई ऋषिकेश, हरिद्वार की ओर बढ़ी। रुड़की तक अपर गंगा कैनाल सिल्ट से भर गई। इस तबाही को कोई नहीं रोक सकता था, लेकिन खास बात यह रही कि इस तबाही में एक भी इंसान की मौत नहीं हुई। पचासी साल बाद 1970 में यही झील जब दोबारा फूटी तो जनधन की भारी तबाही हुई।
इससे साफ हो जाता है कि सवा सौ साल पहले अंगरेजों के दौर में हुई वह कवायद अपने आप में आपदा प्रबंधन की कितनी बड़ी और ऐतिहासिक मिसाल है। देश-विदेश के भूवैज्ञानिक और आपदा प्रबंधन गुरु आज भी उस प्रयास को बड़े सम्मान के साथ याद करते हैं, लेकिन हमारी सरकारों के लिए यह घटना फाइलों में दबा एक उल्लेख भर मात्र है, जिसकी धूल झाड़ कर उससे सबक लेने की सुध किसी को नहीं है।
शैलेंद्र चौहान, प्रतापनगर, जयपुर
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