हरिराम मीणा का लेख ‘आदिवासी नेतृत्व का सवाल’ ( 29 नवंबर) कई अहम प्रश्न उठाता है जिन पर आदिवासी चिंतकों को गहराई से विचार-विमर्श करने की जरूरत है। आजादी के सात दशक बाद भी आदिवासी की लड़ाई कोई और लड़े, यह तर्कसंगत नहीं है।

इस संदर्भ में दलित से तुलना वाजिब है। यह सब जानते हैं कि दलितों में राजनीतिक चेतना आंबेडकर की देन है। यह भी सही है कि इस चेतना का आदिवासियों में अभाव है। वैसे आदिवासी इतिहास संघर्षों से भरा रहा है। इतिहास में झांकने पर राजवंश भी दिखाई पड़ेंगे। अधिक दूर न जाएं तो उपनिवेश काल में फिरंगियों के खिलाफ कितनी ही लड़ाइयां लड़ी हैं।

झारखंड में बिरसा मुंडा, मध्यप्रांत में टंट्या भील, राजस्थान में गोविंद गुरु से लेकर अंडमान के साधनहीन आदिवासियों ने अंग्रेजों को दांतों तले चने चबवा दिए थे। संविधान सभा में आदिवासी सदस्य जयपाल सिंह मुंडा का योगदान मूल्यवान रहा है। फिर क्या कारण है कि झारखंड बनने की लड़ाई लड़ने वाले शिबू सोरेन राह भटके जाते हैं। कितने गजब का संयोग है कि बारह साल तक आदिवासी ही झारखंड के मुख्यमंत्री बनाए जाते हैं। वही भाजपा परंपरा उलट देती है।

शिबू सोरेन और किरोड़ी मीणा के होते हुए किसी आदिवासी नेता की जरूरत नहीं रह जाती है। किरोड़ी मीणा में उतना बड़ा भटकाव नहीं आया जितना शिबू सोरेन के जीवन में आया है। विनोद कुमार के उपन्यास ‘समर शेष है’ में शिबू सोरेन का क्रांतिकारी रूप नजर आता है। राज्य बनने के बाद शिबू सोरेन पर आया उनका तीसरा उपन्यास ‘रेडजोेन’ सोरेन को खलनायक बना डालता है। इसे जनता भी देखती है। शायद राजस्थान की जनता भी किरोड़ी मीणा को इसी रूप में देखती हो, लेकिन उन पर किसी तरह का साहित्य नहीं आता है। इस अर्थ में शिबू सोरेन का चरित्र उतार-चढ़ाव का रहा है। फर्क इतना है कि शिबू सोरेन उतार पर हैं, किरोड़ी मीणा बिना भटके भी उतार पर लगते हैं। (रमेश चंद मीणा, बूंदी)

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सुविधा की रेल

कहावत है कि ‘भैंस दूध तो न दे दो का, और उसे खिला दिया जाए सौ का’। बस यही स्थिति भारत में बुलेट ट्रेन की है। अभी जो लोग 500 किलोमीटर से भी तेज सफर करना चाहते हैं उनके लिए हवाई जहाज हैं। बाकी के अधिसंख्य लोग कब अपनी मंजिल तक पहुंच जाएंगे, इसकी गारंटी रेलवे ले ही नहीं सकता है। अभी देश के लिए सबसे पहले डबल ट्रेक की जरूरत है जिससे प्रत्येक रेलगाड़ी बिना किसी दुर्घटना की आशंका के आराम से 100-150 की रफ्तार से दौड़ सके क्योंकि कई बार तो रेलगाड़ी को क्रासिंग पर घटों इंतजार करना पड़ता है। रेलवे को सभी लाइनें डबल करने के लिए जमीन अधिग्रहण के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ रही है। (राज सिंह रेपसवाल, जयपुर)

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सुधार की दरकार

आज आरक्षण किसी खास जाति के लोगों की जरूरत नहीं बल्कि सभी जातियों में कुछ ऐसे तबके हैं जिन्हें इसकी जरूरत है। ऐसे में समय की मांग है कि आरक्षण की गहन समीक्षा हो और इसमें सुधार किया जाए जिससे सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को इस सुविधा का लाभ मिल सके। यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि इस व्यवस्था का उद्देश्य निर्धन और वंचित तबकों को मुख्यधारा में लाना है न कि किसी विशेष जाति को फायदा पहुंचाना। (शुभम श्रीवास्तव, गाजीपुर)

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धर्म बनाम पंथ

संविधान दिवस पर संसद में बहस करते हुए केंद्रीय गृहमंत्री ने फरमाया कि बयालीसवें संशोधन में सेकुलर और सोशलिस्ट शब्दों को जोड़ने की जरूरत नहीं थी। जाहिर है, यह कह कर उन्होंने संघ के हिंदुत्व के एजेंडे को सामने रखा है। बयालीसवां संशोधन आपातकाल में संसद ने पारित किया था। उसके बाद आई संसद ने इस संशोधन के कई आपत्तिजनक अंश निकाल दिए थे। इससे साफ है कि तब की संसद (जिसमें संघ परिवार के कई बुजुर्ग भी शामिल थे) ने इन आदर्शों को हटाना आवश्यक नहीं समझा तो आज क्यों गड़ा मुर्दा उखाड़ा जा रहा है? वैसे गड़े मुर्दे उखाड़ना भाजपा की कार्य संस्कृति का हिस्सा है? सेकुलरवाद शब्द की पहले से ज्यादा आज जरूरत है।

इसके अलावा उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को सेकुलरिज्म का सही अनुवाद नहीं माना। उनके अनुसार धर्म के बजाय पंथ शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए। यह भी एक तरह से छलना है। हिंदू धर्म को अन्य धर्मों से श्रेष्ठ सिद्ध करने का बेकार प्रयास! धर्म शब्द एक रूढ़ अर्थ ले चुका है और उस अर्थ में हिंदूवाद, इस्लाम, ईसाइयत आदि सभी धर्म हैं। गीता में श्रीकृष्ण जब कहते हैं ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ तो वे भी धर्म को इसी अर्थ में कह रहे हैं। (आनंद मालवीय, इलाहाबाद)

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बैठे ठाले

जन्मजात सुविधाभोगियों की जब सुविधाएं छिनने को होती हैं या छिन जाती हैं तो वे बिदक जाते हैं, असहिष्णु हो जाते हैं। यह मानव स्वभाव है। जब तक वे सुविधाओं का छक कर भोग करते रहते हैं तब तक सहिष्णु बन हर स्थिति से समझौता करते हैं। जैसे ही सुविधाओं का पटाक्षेप हो गया तो लगे कुनमुनाने। हमारे देश में इन दिनों ऐसा ही कुछ हो रहा है। जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक साहब का बयान आया है कि पाक अधिकृत कश्मीर यानी पीओके हमारा नहीं हो सकता। जो हिस्सा पाक के अधीन चला गया वह उनका और जो हमारे हिस्से में आया वह हमारा। दूसरे शब्दों में, हमारे हजारों सैनिकों की कुर्बानियों का अब कोई मतलब नहीं रहा।

दरअसल, खबरों में कौन नहीं रहना चाहता? और वह भी विवादास्पद बयान देकर! सरकारी सुविधाएं तो हाथ से निकल गर्इं, अब करें तो क्या करें? हिंदी की एक कहावत याद आ रही है: ‘खाली बैठा दुकानदार क्या करे? तो भी सेर-बाट ही तोले।’ फारूक साहब पद पर बने रहते तो शायद ऐसा बयान कभी नहीं देते।  (शिबन कृष्ण रैणा, अलवर)