लोक संस्कृति शोषितों और वंचितों की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। लोकप्रिय साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन तक सीमित है जबकि लोक साहित्य अपने आचार-व्यवहार, रीति-रिवाज और संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हुए पीढ़ी-दर-पीढ़ी परंपरा को गतिशील और जीवित रखता है। लेकिन संचार माध्यमों और स्वयंसेवी संस्थाओं ने निजी स्वार्थों के लिए लोक संस्कृति को अवसरानुरूप भुनाना शुरू कर दिया है।

लोक संस्कृति को मुख्यधारा से जोड़ने के नाम पर शहरों, राजधानियों के बड़े-बड़े संग्रहालयों में आयोजित होने वाली प्रदर्शनियां और झांकियां मुनाफा कमाने में लगी हैं, जो कि कलाकारों के वास्तविक जीवन संघर्ष से काफी दूर होती हैं।

उधर लोक संस्कृति को बचाने की जद्दोजहद में लगे ये लोक कलाकार सामाजिक और आर्थिक रुप से पिछड़ रहे हैं। उनके हितों की सुध कोई नहीं लेता। ऐसे में हमारा और सरकार का क्या दायित्व बनता है?

पवन मौर्य, लंका, वाराणसी

 

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