तसलीमा नसरीन ने हालांकि ‘ट्वीट’ कर साफ कर दिया कि ‘हालात सामान्य होते ही वे भारत लौट आएंगी।’ यह सुकून भरी खबर है। मगर सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण रहा उनका विषम परिस्थितियों में भारत छोड़ कर अमेरिका जाना। यह कितना अजीब है कि अमेरिका ने तसलीमा की सुरक्षा की जिम्मेदारी ली और हम इतने बड़े लोकतांत्रिक देश होते हुए भी चुप रहे। तसलीमा को जाने दिया। सरकार की तरफ से तसलीमा की सुरक्षा या उन्हें रोक लेने संबंधी कोई बयान नहीं आया। क्या कट्टरपंथी ताकतें इस कदर हावी हैं कि हम उनके समक्ष हथियार डाल देते हैं। एक लेखिका को यों ही चले जाने देते हैं!

सही है कि तसलीमा इतने सालों से भारत में रही हैं। भारत सरकार उन्हें सुरक्षा भी दिए हुए है। लेकिन इस दफा उनके जाने पर कहीं किसी तरह की सुगबुगाहट का न होना सवाल तो खड़े करता ही है। साथ-साथ इतने बड़े-बड़े प्रगतिशील-वामपंथी संगठन और लेखक भी तसलीमा मामले पर चुप्पी साधे रहे। उनके पक्ष में किसी बड़े लेखक संगठन का कोई बयान नहीं आया। न किसी बड़े लेखक-साहित्यकार ने कुछ लिखा। जब लेखकों का ही लेखक के प्रति यह रवैया है तो सरकार से क्या उम्मीद की जा सकती है?

नक्सलवादियों के लिए निरंतर चिंताग्रस्त रहने वाली अरुंधती राय भी चुप हैं। कहीं कोई लेख, कोई बयान नहीं। कहना न होगा, तसलीमा के मामले में सबसे अधिक ‘उपेक्षितभूमिका’ हिंदी के लेखकों-साहित्यकारों ने निभाई है। बहुत हुआ तो दिल्ली में हस्ताक्षर अभियान चला लिया या कहीं कोई छोटा-सा बयान जारी कर दिया। फिर सब चुप। वामपंथी लेखकों और संगठनों की तो पूछिए ही मत।

जिन वामपंथियों की सरकार तब तसलीमा को सुरक्षा नहीं दे पाई, उन्हें देश से बाहर निकलवा दिया, उनके साहित्य तक पर रोक लगवा दी, उनसे भला क्या सहयोग की उम्मीद की जा सकती है? तसलीमा की जगह अगर कोई वामपंथी या प्रगतिशील लेखक-साहित्यकार होता, फिर देखते, अब तक सरकार, मंत्री, प्रधानमंत्री के खिलाफ जाने क्या-क्या कह डाला होता। बयान जारी हो जाते। सभाएं जुट जातीं। हो सकता है, कुछ क्रांतिकारी टाइप लेखक-साहित्यकार सड़कों पर भी उतर आते। चूंकि वे तसलीमा नसरीन हैं, इसलिए क्यों कुछ कहें या बोलेंगे?

इससे रत्तीभर इनकार नहीं किया जा सकता कि तसलीमा पर जब भी भारत में हमला हुआ, कथित बड़े लेखक-साहित्यकार यों ही चुप रहे हैं। शायद बहुत से लेखक-साहित्यकार तो उन्हें लेखिका मानते ही न हों। जाने कितने ही लेखों में तसलीमा ने वामपंथियों और वामपंथी संगठनों की अपने प्रति ‘उपेक्षा’ को खूब रेखांकित किया है। यह सच भी है। लेखकों का एक लेखक के प्रति इतना उपेक्षापूर्ण व्यवहार हैरानी की बात है।

बेशक तसलीमा के लेखन से तमाम असहमतियां हों लेकिन जिस तरह का संघर्षमय जीवन उन्होंने जिया है, वह तारीफ के काबिल है। इतने हमले और अपमान झेलते रहना बड़ी बात है। किसी दबाव में आकर अपने विचार या विचारधारा से समझौता न करना भी कोई आसान बात नहीं।

हम चाहते हैं कि तसलीमा हमारे ही मुल्क में रहें। बात जहां तक उन्हें सुरक्षा देने की है तो सरकार को देनी ही चाहिए। पर लेखकों या लेखक संगठनों से तसलीमा के पक्ष में कोई उम्मीद करना, नादानी ही होगी।

अंशुमाली रस्तोगी, बरेली

 

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