विकास दुबे मारा गया, लेकिन आखिर उसके जैसे दुर्दांत हत्यारे और माफियाओं के संरक्षकों को कब सजा मिलेगी? देश और समाज में बैठे ऐसे ही सफेदपोश माफियापालक इस देश के विकास दुबे जैसे माफिया से ज्यादा खतरनाक हैं। आज उत्तर प्रदेश पुलिस अपनी पीठ थपथपा रही है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस प्रश्न का राज्य के मुख्यमंत्री के पास क्या जवाब है कि साठ संगीन अपराधों के बावजूद विकास दुबे को आखिर बार-बार जमानत क्यों मिल जा रही थी! ‘वाजिब सवाल’ (संपादकीय, 22 जुलाई) इस जरूरी मसले पर विचार किया गया है।
हकीकत यह है कि ऐसे माफिया को कोई न कोई राजनीतिक दल का नेता संरक्षण देता है। इन नेताओं का स्थानीय पुलिस और अदालतों पर भी परोक्ष रूप से दबाव रहता है। कितने आश्चर्य की बात है कि इस देश की जो पुलिस निरपराध युवकों को पकड़ कर तुरंत कार्रवाई कर देती है, उस गरीब किसान को बुरी तरह सरेआम पीटती है, जो अपने बीवी-बच्चों के पेट भरने के लिए कर्ज लेकर खेत में फसल लगाता है, एक जगह एक छोटे दुकानदार और उसके बेटे को इतनी बर्बरता से मारती है कि उन दोनों की मौत हो जाती है।
कहने का तात्पर्य यह है कि आज भारतीय पुलिस इतनी निरंकुश और मिथ्याचारी हो गई है कि वह बगैर सोचे-विचार किए किसी भी व्यक्ति को जब मर्जी उठा कर हवालात में बंद कर देती है या पीट-पीट कर या गोलीमार कर मौत के उतार देती है। लेकिन यही पुलिस प्रत्य या परोक्ष रूप से किसी संरक्षणप्राप्त ताकतवर भूमाफिया, रेत-माफिया और अन्य ताकतवर माफिया लाचार दिखने लगती है।
आज देश में बहुत से निरपराध और उम्रदराज कवियों, डॉक्टरों, गरीबों, आदिवासियों की मदद करने वाले लोगों, मुफ्त में गरीबों और वंचितों को कानूनी मदद करने वाले वकीलों आदि लोगों को ‘विचाराधीन कैदीछ के रूप में जेलों में डाल दिया गया है। उनके लिए इंसाफ की अदालतें पता नहीं किस बात का इंतजार कर रही हैं। लेकिन साठ से ज्यादा गंभीर आरोपी विकास दुबे जैसे लोगों को जमानत मिल जाती है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट तक को सवाल उठाना पड़ता है।
यह छद्म नाटक अब बंद होना चाहिए, जिसमें केवल गरीबों, मजलूमों, निरपराध लोगों, मजदूरों, किसानों और आम गरीब आदमी का कानून के नाम पर दमन हो और माफिया, ताकतवर, धनाढ्यों, भ्रष्ट राजनीतिकों के गुनाह के बाद भी उनका हर गुनाह जमानत देकर माफ कर दिया जाए।
’निर्मल कुमार शर्मा, गाजियाबाद
अर्थ चक्र
खबरों के मुताबिक भारत अठारह वर्षों के बाद व्यापार आधिक्य की स्थिति को प्राप्त करने में सफल हुआ है। सामान्य तौर पर यह स्थिति किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेतक माना जाता है, क्योंकि इसमें तेज आर्थिक विकास और बेरोजगारी में कमी जैसे अप्रत्यक्ष संकेतक छिपे होते हैं। लेकिन इस महामारी के दौरान स्थिति इसके बिल्कुल उलट है और यह व्यापार आधिक्य की स्थिति तेज आर्थिक विकास का परिणाम न होकर भारतीय अर्थव्यवस्था में मांग में तेजी से आई कमी का परिणाम है। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार भारत अपने कुल आयात का नब्बे फीसदी मध्यवर्ती या पूंजीगत वस्तुओं के रूप में करता है, जो आखिरकार भारत में उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण में सहायक होते हैं। लेकिन पूर्णबंदी के वजह से उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में भारी कमी आई है तो स्वाभाविक रूप से पूंजीगत वस्तुओं के आयात में भी कमी आई है, जो अंतत: हमारी कुल आयात में कमी का प्रमुख कारण बनी।
हालांकि व्यापार आधिक्य का एकमात्र कारण यही नहीं है। वैश्विक बाजार में आई तेल की कीमतों में कमी, सोने के आयात में कमी और हमारी निर्यात का लगभग उसी पूर्व के स्तर पर बने रहना भी इस व्यापार आधिक्य के प्रमुख कारणों में से एक हैं, जो अर्थव्यवस्था के लिए सकारात्मक संकेत भी है। हमें भविष्य में अपने व्यापार आधिक्य को बनाए रखने के लिए आयात प्रतिस्थापन पर जोर देना होगा, जिसके लिए हमें अपनी विनिर्माण उद्योग को प्रमुखता से विकसित करना होगा। तभी आत्मनिर्भर भारत का सपना साकार किया जा सकेगा और स्थायी आर्थिक विकास को भी प्राप्त किया जा सकेगा। लेकिन सवाल है कि पूर्णबंदी जैसी स्थितियों या उपायों के लंबे समय तक लागू रहते क्या हम आर्थिक मजबूती की उम्मीद कर सकते हैं!
’अभिषेक पाल, अंबेडकर नगर, उप्र