जब से देश में ‘स्मार्ट सिटी’ का जुमला उछाला गया है बहुतेरों की बांछें खिली हुई हैं। ‘स्मार्ट’ का शाब्दिक अर्थ आकर्षक, बना-ठना, चतुर, बुद्धिमान, विवेकशील, फैशनेबल आदि होता है। बोलचाल की भाषा में इसका प्रयोग नकारात्मक ध्वनि के रूप में भी किया जाता है (ज्यादा स्मार्ट मत बन/ स्मार्टनेस दिखा रहा है आदि)।
देश में सौ स्मार्ट सिटी बनाने की बात गाहे-बगाहे कही जाती रही है पर स्मार्ट सिटी की अवधारणा को अभी तक पेश नहीं किया गया है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि ये शहर नए बसाए जाएंगे या पुराने शहरों का उन्नयन होगा।
जनाकांक्षा के अनुसार निर्बाध (24 घंटे) बिजली, पानी, सहज-सुलभ सस्ती शिक्षा, चिकित्सा, संचार, यातायात सुविधा, स्वस्थ पर्यावरण, सुरक्षित और गरिमामय जीवन देने वाले शहर को स्मार्ट शहर माना जाना चाहिए।
ऐसा लगता है कि ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं, चार-छह लेन की सड़कों, चौराहों के सौंदर्यीकरण, अत्याधुनिक तकनीकी और संचार माध्यमों-सेवाओं के प्रयोग को ही स्मार्ट सिटी का पर्याय माना जाएगा। जिस तरह से कई देश स्मार्ट सिटी बनाने के लिए लालायित हैं उससे लगता है कि यह उनके लिए बहुत लाभप्रद साबित होगा। जाहिर है बिजली, पानी, यातायात, शिक्षा, चिकित्सा आदि सुविधाओं की और ज्यादा कीमत लोगों को चुकानी होगी और मुश्किल जीवन की मुसीबतें और बढ़ेंगी।
देश में लगभग छह लाख गांव हैं और लगभग सत्तर फीसद आबादी गांवों में रहती है। गांवों से शहर में प्रतिवर्ष पलायन बढ़ रहा है। ऐसी नीतियों से पलायन और बढ़ेगा और शहरों की व्यवस्थाएं और चरमराएंगी। इस परिप्रेक्ष्य में क्या स्मार्ट सिटी हमारे देश की आवश्यकता-प्राथमिकता होनी चाहिए? या पूर्व राष्ट्रपति डा एपीजे अब्दुल कलाम की अवधारणा के अनुसार पहले गांवों को उन्नत बना कर बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करानी चाहिए ताकि अनावश्यक पलायन को रोका जा सके और शहरी व्यवस्थाएं और छिन्न-भिन्न न हों।
सुरेश उपाध्याय, गीतानगर, इंदौर
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