सियाचिन ग्लेशियर में हुए हिमस्खलन में सैनिकों की मृत्यु सचमुच एक दर्दनाक त्रासदी है। उसके बाद छह दिन तक बर्फ में दबे रहने के बावजूद मौत को हरा कर जिंदगी की जंग जीतने की उम्मीद जगाने वाले बहादुर सैनिक हनुमनथप्पा भी आखिर यह जंग हार गए। यह खबर जहां एक ओर उन सैनिकों के परिवारों और देश के लिए बहुत दुखद है, वहीं इससे कई सवाल भी पैदा होते हैं। क्या सिर्फ राजनीतिक और रणनीतिक फैसलों के मद्देनजर वहां अपने बहादुर जवानों की यों ही निरर्थक बलि चढ़ाना उचित है? छिहत्तर किलोमीटर लंबे बर्फीले सुनसान इलाके को बचाने के लिए प्रतिदिन 6.8 करोड़ रुपए खर्च किया जाना तब और भी बेमानी हो जाता है जब हम एक ओर सैन्य और तकनीकी दृष्टि से अत्याधुनिक होने का दावा कर रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद लगातार इस तरह की घटनाएं लगातार घट रही हैं और उनसे कोई सबक नहीं लिया जा रहा है।
फिर एक निर्जन स्थान पर, जो चौवन सौ मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, जहां दूर-दूर तक कोई इंसान नजर नहीं आता है, साल भर तीस-छत्तीस फीट बर्फ पड़ती है, जिसे लगातार हटाते रहना बहुत जरूरी है, जहां तापमान हमेशा शून्य से चालीस से शून्य से साठ डिग्री होने के कारण पूरा शरीर ढक कर रखना मजबूरी हो, जहां सैनिक अपने साथियों को उनके चेहरे से नहीं, बल्कि नेम-प्लेट पढ़ कर पहचानते हों, जहां गर्म खाना मिलना एक सुनहरे स्वप्न के समान हो, जहां फल क्रिकेट की गेंद की तरह सख्त हो जाते हों- ऐसी तमाम विपरीत परिस्थितियों के बीच अपने कुछ सैनिकों को यों ही प्रकृति के भरोसे छोड़ देना क्या अपना पल्ला झाड़ने वाली बात नहीं है?
क्या जवानों की सुरक्षा के लिए और बेहतर था आधुनिक उपाय नहीं किया जाना चाहिए? अगर इस निर्जन पर्वत (ग्लेशियर) पर काबिज रहने से सीमा पार से होने वाले आतंकवाद पर नियंत्रण किया जा पाता तो फिर हाल ही में हुई घटनाएं क्या साबित करती हैं? जाहिर है कि यह एक ऐसी सैन्य चौकी है जिसका इस्तेमाल राजनीतिक फायदे और राष्ट्रवाद की भावना को हवा देने के लिए कभी भी किया जा सकता है! सवाल है कि कब तक देश के जवानों को राजनीति और रणनीति के लिए यों ही अपना जीवन दांव पर लगाना पड़ेगा?
’नवीन चंद्र, जनकपुरी, नई दिल्ली