प्रधानमंत्री मोदी ने फिर देश को अपनी नई नीति से चौंका दिया। आठ नवंबर को अचानक घोषणा हुई कि मध्यरात्रि से 500 और 1000 के नोट नहीं चलेंगे। वे आपके घरों, जेब और बटुए में केवल एक कागज की तरह होंगे। उनका मूल्य केवल बैंक में मिल सकता है। देखते ही देखते पूरे सोशल मीडिया पर तरह-तरह के संबोधन और बचकाने चुटकुले साझा किए जाने लगे। अफसोसनाक है कि एक समाज के रूप में 1000 और 500 के नोट के टॉयलेट पेपर या नमकीन खाने के पोस्टर ने हमें भीतर से नहीं झकझोरा। सबसे ताज्जुब की बात यह थी कि प्रधानमंत्री ने 500 और 2000 रुपए के नए नोट निकालने का भी प्रस्ताव रख दिया। जैसा कि किसी भी तानाशाही के समर्थक व्यक्ति की चाहत होती है, मध्य वर्ग ने इस निर्णय की गोपनीयता और झटके से भरे चरित्र को खूब सराहा और भिन्न-भिन्न प्रकार के गुणगान शुरू हो गए। इस पर प्रश्नचिह्न लगाने वाले हर व्यक्ति को गालियों और तरह-तरह के संबोधनों से नवाजा जाने लगा। दरअसल, प्रश्न पूछना बेहद जरूरी है। इस प्रस्ताव में कई ऐसी धारणाएं छुपी हुई हैं जिनका हमारे जीवन और भविष्य से सीधा नाता है और जिसे मध्य वर्ग, हमेशा की तरह अपने नजदीकी फायदों को देखते हुए दरकिनार कर रहा है।
जानेमाने अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने अपने एक लेख में समझाने की कोशिश की है कि सरकार जिसे ब्लैक मनी समझ कर ये प्रस्ताव लाई, उसमें बहुत खामियां और नादानी से भरी सोच है। हालांकि इसे एक राजनीतिक सोच भी कहा जा सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि जिस तरह फिल्मों में तकिये के खोल में, बिस्तर के नीचे, दीवारों के भीतर काले धन को छुपाया हुआ दिखाया जाता है, असल जिंदगी में स्थिति बेहद धुंधली होती है। काला धन विदेशी बैंकों, शेयर बाजार, बेटिंग अर्थात एक्सचेंज इकॉनमी, यानी एक बोरे में रखे होने को बजाय, बाजार की प्रक्रिया में होता है। पर प्रधानमंत्री मोदी ने इसे एक फिल्मी रूप देकर अलग पहलू दे दिया। अगर हम और गहराई में जाकर अपनी आर्थिक स्थिति को देखें तो भारत इस समय बेहद खराब हालात से गुजर रहा है। हमारे देश में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है, आम जनमानस के पास पैसा नहीं है, किसान बेबस है, दुकानदार और छोटे मोटे व्यापारी नॉन बैंकिंग लोन, यानी बाजार से पैसा उठाने को मजबूर हैं ताकि उनका घर चल सके, बच्चे पढ़ सकें। महंगाई की मार भी कम होती नजर नहीं आ रही।
इन हालात को और बदतर कर रहा है पूंजीपति वर्ग का रक्तरंजित मुनाफा। हाल की रिपोर्ट में बताया गया कि 11000 करोड़ की गैस से गैरकानूनी और अनैतिक मुनाफा रिलायंस ने कमाया है, और पनामा पेपर्स को भी हम भूल नहीं सकते। इन सबमें चार चांद लगाने का काम कर रही है कंपनियों खस्ता माली हालत और गैर निष्पादित आस्तियां। संक्षेप में कहें तो बाजार डावांडोल है और पूंजी निवेश के लिए पैसे की भारी कमी है। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री की नई नीति को समझने का प्रयास किया जाना चाहिए। दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक अलंकार ने जन धन योजना के अपेक्षा से कम परिणाम को इस नीति से जोड़ने का प्रयास किया है। दरअसल, जन धन योजना से जो अनुमान लगाया गया उससे काफी कम पैसा बैंकों के भीतर पंहुचा। अब यह नई नीति बाजार में फिर से नई ऊर्जा डालने के लिए आई है, और सोने पे सुहागा, जैसा कि इतिहास रहा है, यह नीति भी राष्ट्रहित और सुरक्षा का चोगा पहन कर आई!
’आदित्य, दिल्ली