‘वाजिब सवाल’ (संपादकीय, 22 जुलाई) पढ़ कर सहमत हूं कि जिन संवेदनशील बिंदुओं पर चिंता प्रकट की गई है, वह किसी न किसी रूप में राष्ट्रीय विमर्श के क्षितिज पर आज मानव मन को आहत किए हुए है। समाजशास्त्रियों के सिद्धांत में व्यावहारिक स्पंदन निहित है कि जब समाज है, इसलिए विधि-व्यवस्था की समस्या बनी रहेगी। लेकिन राजनीति के आंगन में अपराध का जो वट-वृक्ष आज विस्तारित हो चुका है, उस पर अंकित चर्चा चिंता की भयावहता से साक्षात्कार करा रहा है।

सवाल सिर्फ विकास दुबे का नहीं, बल्कि व्यवस्था से ऐसे तत्त्वों का गठबंधन और सरंक्षण का है। इस पृष्ठभूमि में अपराध का जो साम्राज्य खड़ा हो रहा है उसकी परिणति क्या होगी- यह बुनियादी सवाल है। पुलिस प्रशासन की जिम्मेदारी पर संपादकीय में व्यक्ति की गई चिंता हम जैसे करोड़ों नागरिकों की है जो यह जानना चाहती है कि हर राज्य के प्रमुख जब संविधान की शपथ लेकर शांति और सद्भाव का मंत्र दोहराते हैं तो समाज में हो रही विधि की विभीषिका क्या उनके अंतर्मन को कभी अकेले में झकझोरती नहीं? अगर वे बिना किसी उत्तरदायित्व के एक सामान्य नागरिक होते और आए दिन बेहिसाब घट रही आपराधिक घटनाओं को देखते, सुनते तो क्या उनके उर-अंतर में उथल-पुथल मचने का वह घनत्व होता जो आज देशवासियों के मन में व्याप्त है।

भ्रष्टाचार की आंच की तरह अपराध के पौधे को सींचने, पुष्पपित और पल्लवित करते हुए उसके सरंक्षणदाता सत्ता के शीर्ष पर कल भी बैठे थे और वही आज भी विराजमान हैं। अपराध की ‘गंगोत्री मुख’ को बंद करना इतना आसान नहीं दिखता, क्योंकि पानी सिर से ऊपर बह रहा है। कुछ सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक के बयानों ने विधि व्यवस्था में गिरावट पर बड़े दार्शनिक आख्यानों की पोटली खोली है, मानो उन्होंने अपने कर्तव्य काल में अपराधियों को सबक सिखाया हो। अपवाद में इक्के-दुक्के मामले हो सकते हैं, लेकिन घटनाओं की लंबी शृंखला और उदाहरण भरे पड़े हैं, जहां पुलिस के शीर्ष अधिकारियों के हाथों की कलाई ढीली पड़ गई थी। विधान मंडल या संसद में अपराध विषय पर कोई विशेष सत्र तो दूर, सामान्य सत्र में भी कोई चर्चा की चेष्टा नहीं करता, क्योंकि यह विषय न तो उनकी प्राथमिकता में है और न वे इस पर बहस करा कर अपने पैर में कुल्हाड़ी मारना चाहते हैं।

ऐसे में भरोसा सिर्फ न्यायपालिका पर ही जा टिकती है जो अपनी सीमा में रहते हुए बढ़ते अपराध को जड़ से नष्ट तो नहीं करा सकती, लेकिन जीवित और प्रभावी कानूनों की धाराओं के तहत लगाम लगाने की कोशिश कर सकती है। अपराध जगत के महासागर में ‘वाजिब सवाल’ का उत्तर जिन्हें देने की जिम्मेवारी है, वे आखिर क्यों देंगे! वे तो अपनी सुविधा के लिए अपराधियों का इस्तेमाल करने में लगे हुए हैं। यह संजाल जब तक ऊपर से नहीं नाश होगा, तब तक सामाजिक जीवन के निचले पायदान का स्वच्छ और प्रांजल होना संभव नहीं दिखता।
’अशोक कुमार, पटना</p>

यूरोप में उलझन
यूरोपीय संघ में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। बेल्जियम की राजधानी ब्रुसेल्स में लगातार चार दिनों तक चले बैठक में बड़ी मुश्किल से महामारी फंड पर समझौता हो पाया। जिसके तहत साढ़े सात सौ अरब यूरो ऋण और अनुदान के रूप में स्वीकार किया गया। मगर जिस तरह से बैठक में हो-हल्ला हुआ। फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रॉन ने चार अमीर देशों नीदरलैंड, आॅस्ट्रिया, डेनमार्क और स्वीडन को अड़ंगा डालने वाला कंजूस राष्ट्र कहा। उसके बाद हंगरी और पोलैंड के साथ लोकतंत्र को लेकर बहसबाजी हुई। इस स्थिति से एक बात स्पष्ट हो गई है कि ब्रिटेन के बाहर जाने के बाद और कुछ देश भी कहीं उसी राह पर न चल दें। अगर ऐसा हुआ तो यूरोपीय एकता को ठेस पहुंच सकता है।
’जंग बहादुर सिंह, गोलपहाड़ी, जमशेदपुर