कुछ जिंदगियां आम होती हैं। उनकी मौत कभी सवाल नहीं उठाती। ऐसी खामोश मौतें सिर्फ दुनियादारी के विलाप का विषय बनती हैं और कुछ समय बाद भुला दी जाती हैं। लेकिन प्रत्युषा यानी छोटे परदे की आनंदी की मौत अगर सहानुभूति का समंदर पैदा करती है तो मौजूदा समाज के ताने-बाने और हमारी खुशहाल होती जिंदगी पर भी कई सवाल उठाती है। छोटे शहर का बचपन मुंबई की चकाचौंध में कैसे कामयाबी के झंडे गाड़ता है और फिर कैसे इस चकाचौंध के गर्भ में पसरा अंधेरा ही उसकी जिंदगी को लील जाता है, इसे समझना और जानना मौजूदा दौर की विसंगतियों से रू-ब-रू होना है।
एक तरफ यह दर्दनाक मौत इंसानी महत्त्वाकांक्षाओं और सपनों पर ही सवाल उठाती है तो दूसरी तरफ इसके समांतर रिश्तों की भी एक दुनिया है जिसमें मां है, पिता है और जिंदगी से जुड़े संगी-साथी हैं। प्यार की जवां उमंगें हैं और उन उमंगों के साथ मयार्दाओं को अंगूठा दिखाती आधुनिकता भी है। सवाल आधुनिकता से भी है और इस आधुनिकता से जन्मे रिश्तों से भी जो पानी के बुलबुले के मानिंद कहीं विलीन हो जाते हैं। क्या सही था और कहां जिंदगी के फैसलों में चूक हो गई, आज के दौर की जिंदगी के लिए समझना जरूरी है। क्या यह रिश्तों की बेवफाई से उपजी लाचार और बेबसी में लिपटी मौत है या फिर चकाचौंध दुनिया का वह जहर जो इंसान को कब एक खूबसूरत कफन में समेट लेता है, पता ही नहीं चलता।
बहरहाल, यह भी सच है कि जिंदगी के इन हादसों के लिए डिप्रेशन या अवसाद अपराधी के रूप में खड़ा दिखाई देता है लेकिन यह उपजा कहां से? कहीं हमारी बेलगाम महत्त्वाकांक्षाएं, पांच सितारा जिंदगी के सपने, शोहरत की ऊंचाइयां छू लेने की हसरतें, मयार्दाओं से विद्रोह, रिश्तों का खोखलापन और प्यार में भी फरेब का जानलेवा तिलिस्म तो हमें इस अंधेरी गली तक नहीं पहुंचाता? इसकी ईमानदार पड़ताल खूबसूरत कल के लिए बेहद जरूरी है। (हरप्रीत कौर, बाबा फरीद कॉलेज, बठिंडा)
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भाषा में कट्टरता
जब मैं छोटा था तो घर से निकलते समय ‘खुदा हाफिज’ बोला करता था। फिर एक दिन मुझे बताया गया कि खुदा शब्द का इस्तेमाल तो कहीं कुरान में किया ही नहीं गया है इसलिए खुदा हाफिज बोलना गलत है आप ‘अल्लाह हाफिज’ बोला करें क्योंकि अल्लाह शब्द का प्रयोग कुरान में है। तो मैं एक अच्छे मुसलमान (मुझे नहीं पता कि अच्छा मतलब क्या होता है) की तरह घर से या किसी दोस्त से बिछड़ते समय अल्लाह हाफिज बोलने लगा। अब मुझे फिर यह बताया जा रहा है कि अल्लाह हाफिज तो कभी हमारे पैगंबर साहेब और हमारे सहाबियों ने बोला ही नहीं इसलिए अल्लाह हाफिज बोलना गलत ही नहीं बिद्दत (इस्लाम में वह बात जो पैगंबर साहेब के समय में न रही हो) भी है, आप सलाम ही किया करें।
यहां मैं कहना चाह रहा हूं कि असहिष्णुता पहले आपके विचार में आती है, फिर आपकी भाषा में आती है, तब जाकर आपके व्यवहार में आती है और आप असहिष्णु हो जाते हैं जिसका परिणाम हिंसक होता है। जो समाज जितना ज्यादा अपनी जड़ों को खोजने की कोशिश करता है वह उतना ही असहिष्णु बनता जाता है। इसकी बड़ी वजह यह है कि आप अब बहुसांस्कृतिक समाज में जी रहे हैं जहां एक वक्त में एक से अधिक संस्कृतियां, विचारधाराएं, जातियां-प्रजातियां रहती हैं। आपको समझना होगा कि वस्तुओं का सत्य एक हो सकता है पर मानव का सत्य एक नहीं हो सकता। जहां-जहां मानव का संबंध है निरपेक्ष सत्य नाम की कोई चीज नहीं हो सकती। फिर भी अगर आप निरपेक्ष सत्य की बात करेंगे या ‘मैं ही सही हूं’ या ‘ये ही तरीका सही है’ का राग अलापते रहेंगे तो इससे समाज टूटेगा ही। इसकी शुरुआत पहले बाहरी होगी। उदाहरण के तौर पर, पहले हिंदू-मुस्लिम में आप मुस्लिम को सही मानेंगे, फिर आप मुस्लिम में शिया-सुन्नी में सुन्नी को सही मानेंगे, फिर आप सुन्नी में बरेलवी-अहले हदीस में अहले हदीस को सही मानेंगे! इस तरह यह सिलसिला चलता रहेगा। (अब्दुल्लाह मंसूर, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली)
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ऐसी प्रार्थना
मुजतबा मन्नान की स्कूलों में होने वाली प्रार्थना-सभाओं के बारे में टिप्पणी ‘सुबह की सभा’ (2 मई, दुनिया मेरे आगे) पढ़ी। ऐसा हर जगह होता होगा यह तो नहीं कह सकती, पर बहुत पुराना, साढ़े पांच दशक पहले का दौर याद आता है। मैं शिमला के, जो तब पंजाब का हिस्सा था, सरकारी स्कूल में पढ़ती थी। आज भी मुझे वे छह-सात प्रार्थना-गीत कंठस्थ हैं जो वहां प्रात:कालीन सभा में गाए जाते थे। क्योंकि वे प्रार्थनाएं थीं इसलिए उनका ईश्वर को संबोधित होना बड़ा स्वाभाविक था। ईश्वर, अल्लाह, वाहेगुरु, परमात्मा या ‘मालिक (ऐ मालिक तेरे बंदे हम) आदि शब्द उनमें शामिल होते थे। पर किसी प्रार्थना-गीत की कोई एक भी ऐसी पंक्ति मुझे याद नहीं आती कि जिससे उस प्रार्थना के किसी धर्म विशेष से जुड़े होने का आभास होता हो। उन दिनों प्रार्थना-गीतों का चुनाव करने वालों को शायद इस बात का अहसास रहा होगा कि सुबह विद्यालय के प्रांगण में जो शिक्षिकाएं या सामने जो छात्राएं हाथ जोड़े कतारों में खड़ी होती हैं उनमें हिंदू बहुसंख्यकों के बीच चार-पांच प्रतिशत सिख छात्राएं भी होंगी। पंजाब का पहाड़ी क्षेत्र था। वहां तब हमारे स्कूल में, मुझे याद है कि यही आनुपातिक स्थिति थी। यानी तब भी प्रार्थना-सभा में एक अच्छा माहौल बनाए रखने के लिए सतर्कता और समझदारी की जरूरत महसूस की जाती थी।
पर आज इंसान की सोच पर एक अजीब किस्म की धार्मिकता का जुनून सवार है। सुबह-सुबह स्कूलों में प्रार्थना के नाम पर चलने वाला मंत्रों-श्लोकों का सिलसिला लाउड-स्पीकरों से शोर बन कर गूंजने लगता है। या धार्मिक सद््भावना दिखाने के लिए सरस्वती-वंदना, गायत्री-मंत्र और गुरबानी का शबद, सबको शामिल करते हुए प्रार्थना-सभा का समय लंबा खींच दिया जाता है। फिर अंत में गलत सुर-लय और शब्दों के गलत उच्चारण के साथ ढोल की थाप पर गाया जाने वाला राष्ट्र-गान! प्रार्थना-सभाओं में प्रार्थना और देशप्रेम के भाव तो जैसे तिरोहित हो गए हैं। कितना अच्छा हो अगर विद्यालयों में प्रार्थना-सभाओं के लिए आस्था के सरल-सहज रूप वाली रचनाओं का चयन किया जाए, जिससे प्रार्थना की मुद्रा में खड़े हर शिक्षक, छात्र और कर्मचारी को उस रचना के गायन अथवा श्रवण से अपनी कल्पना में मौजूद सर्वशक्मिान से जुड़ने के एक समान अहसास हो। (शोभना विज, पटियाला)
