लोकसभा हो या विधानसभा, प्रश्नकाल संसदीय कार्यवाही की आत्मा कहलाती है। यही कारण है कि प्रश्नकाल अनेक बार नीरस होती संसदीय कार्यवाही को महत्त्पूर्ण और रोचक बनाता है। नए सदस्यों की उत्साह मिश्रित अपेक्षा होती है कि वे सदन में प्रश्न पूछें और अपने क्षेत्र की या उन्हें जो जरूरी लगता है, वे विषय उठाएं, क्योंकि आमतौर पर किसी भी दल में नए सदस्यों को वरिष्ठ सदस्यों की तुलना में सदन में बोलने का अवसर कम मिलते हैं।

ऐसे में प्रश्नों के माध्यम से वे अपनी उपस्थिति सदन में, अपने निर्वाचन क्षेत्र में और विभागों में दर्ज कराते हैं। अनेक अधिकारी भ्रष्टाचार या अनियमितताओं की सांसद/ विधायक की शिकायतों का जवाब नहीं देते। ऐसे में प्रश्न जिनका उत्तर नियत समय सीमा में देना होता है, एक अचूक उपाय का काम करता है।

कोरोना काल में बदलाव के नाम पर प्रश्नकाल को रोकना दुखद है। लोकसभा और विधानसभा में सारे निर्णय अध्यक्ष की अनुमति से होते हैं और अध्यक्ष महत्त्वपूर्ण निर्णय सदन के नेता यानी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की सहमति से करते हैं। अनेक बार वे विपक्ष के नेता की सहमति भी लेते हैं। लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इक्कीस सितंबर से मध्यप्रदेश विधानसभा के तीन दिवसीय सत्र में प्रश्नकाल रखा गया है।

प्रश्नकाल का एक विकल्प यह भी था कि सदस्यों से प्रश्न रखवा कर उन्हें अतारांकित प्रश्नों की तरह छपे हुए लिखित उत्तर दे दिए जाते।
’मिलिन्द रोंघे, महर्षिनगर, इटारसी