मध्यप्रदेश के गुना जिले में अतिक्रमण से जुड़े एक मामले में कानूनी कार्रवाई के नाम पर पुलिस ने जैसा चेहरा दिखाया है, उससे एक बार फिर यह उजागर हो जाता है कि कानूनी दस्तावेजों या नियमावली में चाहे जो दर्ज हो, लेकिन पुलिस अपना रवैया बदलने को तैयार नहीं है। गुजरे मंगलवार को पुलिस की टुकड़ी के साथ प्रशासन वहां एक कॉलेज को आवंटित की गई जमीन पर अतिक्रमण हटाने पहुंचा था। किसान ने कहा कि उसने काफी कर्ज लेकर जमीन पर फसल उगाई है, इसे कटने तक रहने दिया जाए। अगर दीर्घकाल से इस कब्जे की अनदेखी की जा रही थी, तो कायदे से प्रशासन को किसान के इस आग्रह पर गौर करना चाहिए था। लेकिन प्रशासन द्वारा जेसीबी मशीनों से फसलों को बर्बाद करना चालू कर दिया और आपत्ति जताने पर किसान और उसके परिवार को बेरहमी से पीटना शुरू कर दिया।
इस तबाही को देख कर किसान और उसकी पत्नी ने कीटनाशक खाकर आत्महत्या करने की कोशिश की। दरअसल जिस जमीन को लेकर यह समूची घटना सामने आई है, वह गुना के ही एक व्यक्ति के कब्जे में है और उसने पीड़ित किसान को पैसे लेकर उस पर खेती करने की इजाजत दी थी। लेकिन प्रशासन को इस बात की तहकीकात करने और असली आरोपी के खिलाफ कार्रवाई करने की जरूरत महसूस नहीं हुई।
प्रशासन ने किसी निश्चित अवधि के भीतर जमीन खाली कराने के लिए पीड़ित किसान को कोई नोटिस भी नहीं दिया था। अगर उस भूखंड पर काफी समय से कब्जा बना हुआ था तो इतने दिनों तक प्रशासन क्यों सोया रहा और तैयार फसल को बर्बाद करके ही उसे जमीन खाली कराने की क्यों सूझी? उसे इस पहलू पर गौर करने की जरूरत तक महसूस नहीं हुई कि वह जिस दलित किसान पर कहर ढाने पहुंची है, वास्तव में वह अतिक्रमण या कब्जे के लिए दोषी नहीं है, बल्कि उसने अपने गुजारे के लिए करीब तीन लाख रुपए कर्ज लेकर जमीन पर फसल उगाई थी। उसे तबाह होते देखकर उसके भीतर प्रतिक्रिया पैदा हुई हो सकती है। लेकिन इसके मानवीय संदर्भ को समझने के बजाय वहां मौजूद पुलिस ने बर्बरतापूर्वक उन सबकी पिटाई शुरू कर दी।
विडंबना यह है कि देशभर में समूचे पुलिस तंत्र पर लगातार उठते सवालों के बावजूद पुलिस का यह रवैया कायम है। अगर विवादित जमीन पर किसान का कब्जा कानून सम्मत नहीं था, तो उसे खाली कराने के लिए कानूनी तौर-तरीकों का सहारा लिया जा सकता था। अफसोसजनक यह है कि कानून के रखवालों की ओर से इस तरह का बेलगाम बर्ताव सामने आता रहता है कि कई बार खुद कानून को कसौटी पर खड़ा होना पड़ता है। पुलिस के व्यवहार और मामलों से निपटने को लेकर जब तक जमीनी स्तर पर सख्त नियम कायदे नहीं बनाए जाते और खुद पुलिसकर्मियों और अफसरों के भीतर उसके उल्लंघन पर अपने खिलाफ कार्रवाई का डर नहीं पैदा होगा, तब तक स्थिति में बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती।
’अरविंद पाराशर, फतेहपुर ( उप्र)
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