भारतीय संसद के कामकाज में विपक्ष के हंगामे और शोर-शराबे के कारण बाधा पड़ना कोई नई बात नहीं है। संसद के मौजूदा मानसून सत्र में भी इसी के चलते विधायी कामकाज बुरी तरह से बाधित हुआ है क्योंकि कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दल ललित मोदी प्रकरण में विदेशमंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और व्यापमं घोटाले के कारण घिरे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के इस्तीफे की मांग पर अड़े हैं।

कांग्रेस के पच्चीस सांसदों के लोकसभा से निष्कासन के बाद सरकार और विपक्ष के बीच टकराव और बढ़ गया है। कहने की जरूरत नहीं कि दोनों ही अड़ियल रवैया अपनाए हुए हैं, लेकिन विपक्ष का दोष ज्यादा दिखता है क्योंकि संसद तो वाद-विवाद और बहस-मुबाहिसे का उचित मंच है। ऐसे में विचार-विमर्श के लिए शर्तें रखने का औचित्य नहीं है। वैसे विपक्ष के रूप में भाजपा भी ऐसा ही आचरण करती रही है।

दलगत राजनीति को परे रख कर सांसद यह समझें कि संसद में उन्हें गंभीर विमर्श करने और देशहित में विधायी काम के लिए भेजा गया है न कि धरने-प्रदर्शन, नारेबाजी और शोर-शराबे के लिए। ‘काम नहीं तो वेतन नहीं’ का सिद्धांत सांसदों पर लागू करने का सुझाव भी अपने आप में विचार करने योग्य है, लेकिन संसद की कार्यवाही पर होने वाले भारी-भरकम खर्च में सांसदों के साथ ही संसद में कार्यरत अधिकारियों, कर्मचारियों और सुरक्षाकर्मियों की भारी-भरकम फौज पर होने वाले खर्च भी सम्मिलित हैं।

इससे भी मूल्यवान है समय, जिसकी भरपाई नहीं हो सकती और देश के 125 करोड़ लोगों का अपने प्रतिनिधियों पर विश्वास लगातार कमजोर होता है।

कुछ साल पहले लोकसभा के उपाध्यक्ष चरणजीत सिंह अटवाल ने बीबीसी के एक कार्यक्रम में मेरे सवाल के जवाब में कहा था कि मीडिया भी इस बात के लिए दोषी है कि गंभीर विचार-विमर्श करने वाले सांसदों की बजाय हंगामा या शोरशराबा करने वाले सांसदों को ज्यादा महत्त्व दिया जाता है। मीडिया को भी चाहिए कि संसद की कार्यवाही में व्यवधान डालने वालों की अपेक्षा गंभीर विमर्श करने वाले सांसदों को महत्त्व दे।

कमल जोशी, अल्मोड़ा

 

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta