यह विडंबना ही है कि अपने देश में लोकपाल कानून बन तो दिसंबर 2013 में ही गया था लेकिन आज 2017 में भी लोकपाल का कहीं कोई अता-पता नहीं है। जिस कानून को बनाने के लिए जंतर-मंतर पर इतना बड़ा आंदोलन चलाया गया, कानून बन जाने के बाद भी आखिर लोकपाल क्यों नहीं बनाया गया? यहां तक कि लोकपाल का ढांचा भी अभी तैयार नहीं हुआ कि कहां इसका दफ्तर रहेगा या कितने कर्मचारी उसमें काम करेंगे वगैरह-वगैरह। इस मामले पर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई तो सरकार ने कहा कि वर्तमान हालात में लोकपाल की नियुक्ति नहीं की जा सकती है क्योंकि कई संशोधन करने बाकी हैं जो अभी लोकसभा में लंबित हैं।

यहां सवाल कि आखिर लोकपाल कानून के संशोधन में ऐसी क्या मुश्किल आ रही है जो इतना लंबा वक्त लग रहा है? इसी बीच कई संशोधनों के जरिए राजनीतिक दलों ने अपने हित में बढ़िया इंतजाम कर लिया है। मसलन, कारपोरेट क्षेत्र से मिलने वाले चंदे के मामले में। लोकसभा में संशोधन से पहले कोई भी कंपनी अपने कुल मुनाफे का 7.5 फीसद हिस्सा राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में दे सकती थी और उन्हें यह बताना होता था कि कितना पैसा किस राजनीतिक दल को दिया गया है। लेकिन अब नए संशोधन के अनुसार कारपोरेट क्षेत्र की कंपनियों को यह बताना ही नहीं पड़ेगा कि कितना पैसा किस राजनीतिक दल को दिया गया है। पहले यह बताना पड़ता था कि किसे कितना चंदा दिया गया लेकिन अब ऐसा नहीं है। क्या यही है पारदर्शिता? लगता है कि पारदर्शिता के मायने अब बदल गए हैं। अब बताना पारदर्शिता नहीं बल्कि छिपाना पारदर्शिता है।

ऐसे संशोधन का क्या मतलब है खासतौर पर तब जब सरकार की तरफ से किसी भी चीज के लिए आधार और पैन नंबर अनिवार्य कर दिया गया हो? आखिर राजनीतिक दल चंदा देने वाली कंपनियों को क्यों इतनी बड़ी सुविधा देना चाह रहे हैं? हाल ही में सरकार की तरफ से एक नया संशोधन लाया गया। पहले राजनीतिक दलों को 20000 रुपए तक चंदा देने पर व्यक्ति का नाम नहीं बताना पड़ता था और अब इस राशि को घटाकर 2000 रुपए कर दिया गया। लोगों को लगा कि इस संशोधन से चुनाव में पारदर्शिता आएगी। लेकिन कारपोरेट कंपनियों को लेकर किए गए संशोधन को हम क्या समझें?

क्या नया संशोधन राजनीतिक दलों को पारदर्शी बना रहा है? आखिर उनके लिए आधार और पैन नंबर क्यों अनिवार्य नहीं किए गए? क्या हमें यह जानने का अधिकार नहीं है कि किन-किन कंपनियों ने राजनीतिक दलों को चंदा दिया है? विपक्षी दलों ने भी इस पर कोई कड़ी प्रतिक्रिया नहीं दी। लगता है, उन्हें भी आशा है कि चलो कहीं न कहीं हम भी कारपोरेट जगत की कंपनियों से चंदा ले ही लेंगे।
’मुकेश प्रजापति, मुंबई</p>