जब से राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने जंतर-मंतर पर होने वाले किसी भी तरह के प्रदर्शन पर रोक लगाई है तब से न तो वहां सालों से प्रदर्शन कर रहे सेना के जवानों का पता है न ही किसानों का। ऐसा नहीं है कि धरने की जगह न रहने से उनके दिलों में भरा गुस्सा शांत हो गया है। पर हां, थोड़े दिनों के लिए उनकी आवाज जरूर शांत हो गई है। वर्षों से जंतर-मंतर एक ऐसा स्थान रहा है जहां लोकतंत्र अपने सबसे सुंदर रूप में विद्यमान था। चाहे कर्मचारी हों, छात्र हों या आम आदमी, सब अपनी बात कहने वहां चले जाते थे। जहां एक ओर जंतर-मंतर आम लोगों को अपनी बात कहने और विरोध करने की हिम्मत देता था वहीं दूसरी ओर लोकतंत्र की मूल भावना को जीवित भी रखता था। शायद ही कोई राजनीतिक दल हो जिसके विस्तार में जंतर-मंतर की भूमिका न रही हो। हैरत होती है जब लोकतंत्र की दुहाई देकर सत्ता में आए रहनुमा आम जनता के विरोध के अधिकार को बचाने के लिए अन्य वैकल्पिक स्थान ढूंढ़ने में प्रयासरत नहीं दिखते। रामलीला मैदान का जो विकल्प प्रदर्शनकारियों को दिया जा रहा है उसका खर्च उठाना उनके लिये टेढ़ी खीर साबित होगा और विरोध करना सिर्फ अमीरों के बस की बात हो जाएगी।

इसमें दो राय नहीं कि प्रदूषण एक गंभीर समस्या है जिसे रोकने के उपाय होने चाहिए, पर नागरिकों के विरोध के अधिकार को छीनने की कीमत पर नहीं। बड़ी-बड़ी रैलियों में चीखते लाउड स्पीकर्स, आधी रात तक होती आतिशबाजी भी ध्वनि प्रदूषण का कारण हैं पर कोई राजनीतिक दल इन्हें रोकने के प्रति गंभीर नजर नहीं आता और न पूजा स्थलों में दिन-रात बजते बाजों को रोकने की हिम्मत कोई कर पाता है।
क्या आम आदमी द्वारा किया जाने वाला विरोध ही प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है? लोकतंत्र के सबसे बड़े तीर्थ में लोगों का आना-जाना लगा रहे यह सुनिश्चित करना सरकार का दायित्व है और जनता की आवाज भी, जिसके लिए बेशक विरोध-प्रदर्शनों में लाउड स्पीकर्स के उपयोग पर पाबंदी लगा दी जाए। सत्ताधीशों को समझ लेना चाहिए कि दबाया हुआ विरोध एक दिन विद्रोह को अवश्य जन्म देता है।
’अश्वनी राघव ‘रामेन्दु’, उत्तम नगर, दिल्ली</p>