भारत में रूढ़िवादी सोच और तथाकथित संस्कृति को दूसरों पर थोपने के मामले अक्सर सुनने में आते है। ऐसा ही एक मामला केरल के तिरुवनंतपुरम से सामने आया है। वहां एक स्कूली छात्र ने अपनी महिला मित्र को गले लगा कर नृत्य में अच्छे प्रदर्शन के लिए बधाई दी। स्कूल प्रशासन ने छात्र-छात्रा के बर्ताव को अनुशासनहीनता बता कर दोनों को निष्कासित कर दिया। केरल राज्य बाल अधिकार आयोग ने स्कूल के फैसले को पलट दिया।
लेकिन हैरानी की बात है कि केरल हाई कोर्ट ने निष्कासन को सही ठहरा दिया। इसी तरह महाराष्ट्र उच्च न्यायालय की एक सेवानिवृत न्यायधीश ने भी कहा कि न्यायालय में लोगों को ‘सभ्य’ कपड़े पहन कर आना चाहिए। न्यायाधीशों का काम संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करना हैं, न कि यह तय करना कि लोगों को कैसे कपड़े पहनने चाहिए! भारतीय संविधान व्यक्ति को निजी स्वतंत्रता का अधिकार देता है। अगर इस स्वतंत्रता से किसी की निजी जिंदगी में बाधा नहीं पहुंचती है तो क्या हमारी अदालतों को इसका खयाल नहीं रखना चाहिए?
स्वयंभू रक्षकों द्वारा सभ्यता के मानदंड तय किए जाते हैं।
देश की पैंसठ फीसद आबादी युवा है। बागी मिजाज युवा संस्कृति के पुराने मानदंडों पर नहीं चलते। इसलिए संस्कृति के स्वयंभू रक्षकों द्वारा युवाओं को सजा दी जाती है। लेकिन तथाकथित संस्कृति के स्वयंभू रक्षक ये नहीं समझते कि संस्कृति समय के हिसाब से बदलती रहती है, नए स्वरूप में निखरती रहती है। भारतीय संविधान हर व्यक्ति को अपने निजी फैसले लेने का अधिकार देता है। अगर किसी को संस्कृति की चिंता है तो उन्हें अपने तरीके से लोगों को अपनी बातों से सहमत करना चाहिए। दूसरों पर अपनी राय या विचार थोपना या उसकी जिंदगी में दखलअंदाजी करना अपने आप में एक अलोकतांत्रिक रवैया है।
संदीप सिंह, लुधियाना</strong>