यह आवश्यक नहीं होता कि इन संदर्भों में हमारे दृष्टिकोण से अन्य पक्ष भी पूरी तरह सहमत हों। प्रत्येक व्यक्ति के अपने-अपने पूर्वाग्रह हो सकते हैं। कभी-कभी पूर्वाग्रह की प्रबलता दुराग्रह में तब्दील भी हो जाती है।

ऐसे में किसी भी विषय को लेकर तटस्थ दृष्टिकोण का प्रतिपादन नहीं हो पाता। इन कारणों के चलते कालांतर में नागरिकों के बीच परस्पर वैचारिक टकराव की स्थिति भी निर्मित हो जाती है। किसी भी स्थिति में असहमतियों को कुचलना आखिरकार नकारात्मक परिणाम का कारक होता है। ऐसी स्थिति में परस्पर संवाद से समाधान की ओर बढ़ना चाहिए।

कभी-कभी व्यक्ति विशेष के विचारों से अभिप्रेरित होकर हम अपने विचार निश्चित करते हैं। लेकिन जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार हो रहा है, नागरिकों की तर्कशक्ति में आशातीत परिपक्वता भी परिलक्षित होती है। ऐसी स्थिति को सुखद कहा जा सकता है, क्योंकि किसी भी विषय पर गहन वैचारिक मंथन के बाद प्राप्त निष्कर्ष समाज की दशा और दिशा को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं।

लेकिन जब ऐसे निष्कर्ष किसी पर थोपने के प्रयास किए जाते हैं, तब वैचारिक टकराव परस्पर कटुता का कारण बन जाता है। इस स्थिति से बचने का प्रयास होना चाहिए। सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि वैचारिक टकराव भी सकारात्मक परिवर्तन के कारक सिद्ध होते हैं।

इसमें संदेह नहीं कि नागरिकों की तर्कशक्ति में आमूलचूल परिवर्तन के परिणामस्वरूप लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अलग-अलग विचारधारा को देश-प्रदेश का नेतृत्व करने का अवसर मिला है। इसे हम नागरिकों की राजनीतिक चेतना के रूप में भी परिभाषित कर सकते हैं। आमतौर पर देश-प्रदेश के नेतृत्व की विचारधारा के आधार पर आम नागरिक अपना अभिमत सुनिश्चित करते हैं।

लेकिन नागरिकों का ऐसा वर्ग भी है जो गहन वैचारिक मंथन के बाद मताधिकार के माध्यम से देश-प्रदेश की दशा और दिशा को सुनिश्चित करता है। ऐसी जागृति लोकतंत्र की बुनियाद को और भी सशक्त आधार देने में सहायक सिद्ध होती है। इन सबके मूल में मतभिन्नता के चलते ही आखिर परिवर्तन को स्वीकार किया गया है।

दरअसल, विचारधारा के टकराव से भी नए निष्कर्षों को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त होती है। भौतिक संसाधनों की बहुलता के बावजूद आम नागरिकों का विचार-दर्शन आस्था और विश्वास पर ही टिका हुआ है। हालांकि दुनिया में चाहे जितने परिवर्तन आए, लेकिन हम अपनी मूलभूत सभ्यता और संस्कृति से निरंतर जुड़े रहे हैं। आज भी धर्म-अध्यात्म की दुनिया में चहल-पहल स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।

आज भी व्रत, नियम और संयम का पालन किसी न किसी रूप में हो रहा है। माता-पिता के संस्कार बच्चों में परिलक्षित हो रहे हैं। नकारात्मकता भी है, लेकिन आज भी मर्यादित जीवन शैली को बड़ी शिद्दत के साथ आत्मसात किया जा रहा है। राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में जितने भी परिवर्तन हुए हैं, उनके मूल में कहीं न कहीं वैचारिक असहमतियां भी अवश्य रही हैं। मुद्दे की बात यह कि वैचारिक मतभिन्नता का सदैव स्वागत किया जाना चाहिए।
राजेंद्र बज, हाटपीपल्या, देवास मप्र।

जल और जननी

सृष्टि का संचालन बहुत से तत्त्वों पर निर्भर है, लेकिन जीवन के लिए जिन दो की जरूरत सबसे ज्यादा है, वह है जल और जननी। इंसान खाने के बिना जीवित रह सकता है, लेकिन जल के बिना नहीं। उसी तरह अगर जननी यानी महिला नहीं होगी तो जीवन कैसे धरा पर आएगा? जल और जननी दोनों की प्रकृति हमेशा से एक-सी है। दोनों को एक दूसरे के सहयोग से बचाया जा सकता है। पानी हमारे जीवन में है, तो सब कुछ सुंदर है। ताजातरीन है, हरा-भरा है। स्त्री का संसार में होना भी वैसा ही है।

गांव से लेकर महानगर तक पानी की क्या समस्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। खुली आंखों से और गंभीरता से मनन किया जाए तो पता चलेगा कि पानी अब नदी से चल कर बोतल पर आ गया है। इसका उपयोग, सदुपयोग, और दुरुपयोग का बेहतर विश्लेषण सभी को करना होगा। क्या बच्चों को भी सिखाया जा रहा है पानी सहेजना? हमारी लापरवाही और उदासीनता के कारण पानी और स्त्री, दोनों अपने मूल स्वरूप खो रहे हैं। बचाना है, कद्र करना है, कीमत समझनी है। नहीं तो दोनों हमारे जीवन से बह जाएंगे। अब भी वक्त है संभलने का, वरना बूंद-बूंद पानी और बेटी को तरसेंगे लोग।
मधु कुमारी, बोकारो, झारखंड।

कुदरत के रंग

प्रकृति कब अपना रूप बदल ले, कहा नहीं जा सकता। अप्रैल-मई में गर्मी का मौसम रहता है, मगर आज कल आए दिन होने वाली बरसात ने पूरा समीकरण बदल डाला। अब भले ही गर्मी अपने रंग में आ रही हो, लेकनि पिछले दिनों पता ही नहीं चला कि यह गर्मी का मौसम है या इसमें बरसात घुलमिल गई। बल्कि तापमान के लिहाज से भी कुछ दिन खुशनुमा मौसम रहा।

ऐसी स्थिति रही कि कई बार कूलर-पंखे के सामने बैठने के दिन में बाहर घूमने-फिरने का मन होने लगा। हरियाली भी नजर आ रही है। हालांकि इस बदलते मौसम ने कुछ परेशानी भी बढ़ा दी है। जिन घरों में शादी के आयोजन हैं और फसलों के लिहाज से यह मौसम चिंता बढ़ाने वाला है। फिर भी प्रकृति ने यह साबित कर दिया है कि उसके आगे कोई नहीं।
साजिद अली, चंदन नगर, इंदौर।

आबादी का उपयोग

हाल ही में जारी संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 65 फीसद आबादी 15 से 64 वर्ष की आयु की है, जिसमें से अकेले 26 फीसद आबादी 10 से 24 वर्ष की है। भारत अब आबादी के मामले में विश्व में प्रथम होने जा रहा है। ऐसे में भारत को इसका लाभ उठाने की लिए बच्चे और किशोरों के गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, कामकाजी लोगों के कौशल-प्रशिक्षण और उचित रोजगार पर तेजी से काम करने की आवश्यकता है।

खासतौर पर ग्रामीण युवाओं पर विशेष ध्यान देना प्राथमिकता में शामिल करना चाहिए। इसके अलावा उत्पादन या निर्माण और जिलास्तर उद्यमिता योजना से संभव है कि एक रोजगार की संभावना बने और यह आबादी भारत को नई ऊंचाई पर ले जाए।
मनकेश्वर कुमार, मधेपुरा, बिहार।