बढ़ती जनसंख्या के कारण आज देश में संसाधनों की दिन प्रतिदिन कमी होती जा रही है। लगभग हर भारतीय इस सच से रूबरू है। 1991 की जनगणना में भारत की जनसंख्या लगभग 85 करोड़ थी जो सन 2011 तक बढ़कर 121 करोड़ के आसपास पहुंच गई। भारत का क्षेत्रफल के लिहाज से विश्व में सातवां स्थान है जबकि जनसंख्या के मामले में दूसरा है। भारत में विश्व के लगभग 2.42 फीसद क्षेत्रफल पर विश्व की जनसंख्या का लगभग 17.5 फीसद भाग निवास करता है जो वैश्विक अनुपात से कहीं ज्यादा है। दरअसल, बढ़ती जनसंख्या देश के विकास में किसी न किसी रूप में बाधा ही पहुंचा रही है। आज इसके कारण करोड़ों युवा बेरोजगार घूम रहे हैं। लोग प्रतिदिन संसाधनों की कमी के कारण गरीबी के दलदल में धंसते जा रहे हैं। जमीन की बढ़ती मांग के कारण जंगलों को उजाड़ा जा रहा है, जिससे पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। कृषि योग्य भूमि सिकुड़ती जा रही है जिससे खाद्य संकट पनप रहा है। आज लाखों लोग घरों की कमी के कारण फुटपाथों पर रहने को मजबूर हैं। गरीब बच्चे शिक्षा ग्रहण करना तो दूर, चाय के खोखों आदि पर काम करके पेट भरने को मजबूर हैं। इस संकट से निपटने के लिए सरकार द्वारा सर्वशिक्षा अभियान चलाया जा रहा है क्योंकि ‘पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा इंडिया’। लोगों को इस अभियान से पूर्ण लाभ लेना चाहिए। देश का हर युवा शिक्षित होगा तो वह अपने हित और अहित में अंतर स्पष्ट कर सकेगा। इससे एक स्वच्छ और समृद्ध भारत का निर्माण होगा।
शशांक वार्ष्णेय, नई दिल्ली
इनकी शिक्षा: हमारे देश में सतत विकास लक्ष्य के तहत घोषणा की गई थी कि सभी बच्चों को बुनियादी शिक्षा उपलब्ध करा देंगे लेकिन आंकड़े बताते हैं कि अब भी करोड़ों बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। इनमें दिव्यांग बच्चों की संख्या काफी ज्यादा है। उन्हें किसी न किसी बहाने शिक्षा से वंचित किया जाता है। उनके साथ सामान्य बच्चों जैसा व्यवहार नहीं किया जाता और बार-बार यह अहसास कराया जाता है कि वे दिव्यांग हैं, वे कुछ नहीं कर सकते हैं! ऐसा बर्ताव कई बार बच्चों में अवसाद और कुंठा को जन्म दे सकता है। इसलिए दिव्यांग बच्चों को किसी खास वर्ग में बांट कर विशेष स्कूलों के हवाले कर देने से बेहतर है उन्हें विशेष शिक्षकों के जरिए स्कूली शिक्षा दी जाए। दिव्यांग बच्चे भी इसी समाज का अभिन्न अंग हैं। उन्हें नजरअंदाज या बहिष्कृत कर हम विकसित समाज और देश की परिकल्पना भला कैसे कर सकते हैं! दिव्यांग बच्चों को स्कूली शिक्षा की मुख्यधारा से बाहर कर समावेशी समाज और शिक्षा की परिकल्पना भी मुश्किल है।
अश्मिता, अंबेडकर कॉलेज, नई दिल्ली</strong>
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