अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ लड़ रहा है। यह बात खुद मेंं ही दो राय लिए हुए है, क्योंकि अमेरिका खुद किसी न किसी संघर्ष में शामिल रहता है या फिर किसी नए संघर्ष का कारण बनता है। बीते समय और वर्तमान में मध्यपूर्व एशिया में हुए जनसंहार रोंगटे खड़ा कर देते हैं। इन दिनों सीरिया में जो कुछ भी हुआ, या हो रहा है, उससे तो यही प्रतीत होता है कि सीरिया मेंं शिया और सुन्नी का मामला तो समस्या की सिर्फ ऊपरी परत है। गहराई में तो यह छद्म युद्ध का अखाड़ा बना हुआ है, जिसमें निर्दोष मासूमों और नागरिकों को जान से हाथ धोना पड़ रहा है। दूसरी ओर भू राजनीति के खेल में हर कोई बहती गंगा में हाथ धोने में लगा है। अमेरिका का इतिहास उठा कर देखें तो जबसे अमेरिका एक देश बना है यानी सन 1776 से किसी न किसी युद्ध में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल ही रहा है। अमेरिका पिछले ढाई सौ सालों में से 222 वर्ष प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से युद्धों में सम्मिलित रहा है और शांति के मात्र इक्कीस साल ही बिताए हैं। इन सबके मूल में अमेरिका का सैन्य उद्योग प्रमुख है।
अधिकतर देशों में रक्षा उपकरण या रक्षा उत्पाद बनाने वाली कंपनियां सरकार के नियंत्रण में होता है, परंतु अमेरिका में यह पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण से मुक्त है और निजी। अमेरिका के रक्षा उपकरणों को हम-आप तो खरीदेंगे नहीं। इसे या तो अमेरिका की सरकार खरीदेगी या अन्य देश की सरकार खरीदेगी। अमेरिका पूरे प्रयास में रहता है कि उसके रक्षा उत्पादों को कोई हानि न हो। ऐसे में उन देशों को साथ में आना होगा जो सच में आतंकवाद की समस्या से निजात पाना चाहते हैं।
श्वेता झा, डीएसजे, दिल्ली विवि
सुविधा का रास्ता: प्रधानमंत्री ने हाल में गंगा नदी पर रामनगर, वाराणसी में बना देश का पहला अंतर्देशीय जलमार्ग टर्मिनल राष्ट्र को समर्पित किया। करीब 5369 करोड़ रुपए की लागत से बने इस पहले टर्मिनल को भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण ने विश्व बैंक की मदद से जल विकास मार्ग परियोजना के तहत बनाया है। यह टर्मिनल परिवहन के सस्ते और पर्यावरण अनुकूल साधन के रूप में अंतर्देशीय जल परिवहन को बढ़ावा देने की महत्वाकांक्षी परियोजना का हिस्सा है।
इससे वाराणसी से हल्दिया तक हर माह एक लाख टन माल की ढुलाई आसानी से होगी। रामनगर में तैयार मल्टी मॉडल टर्मिनल से हल्दिया और नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमा सहित कई देशों में सामान भेजा जा सकेगा। इससे एक लाख 60 हजार लोगों को अप्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष रोजगार मिलने की भी उम्मीद है। सरकार ने देश में माल ढुलाई का 15 फीसद राष्ट्रीय जलमार्गों के जरिए करने का लक्ष्य रखा है। इसके तहत 111 नदियों को जलमार्ग में तब्दील करने की योजना पर काम चल रहा है। ऊर्जा की दृष्टि से किफायती, पर्यावरण अनुकूल, रखरखाव की कम लागत, जलयानों की अधिक टिकाऊ क्षमता, भूमि अधिग्रहण की कम ज़रूरत तथा खतरनाक कार्गो की ढुलाई के लिए सर्वाधिक सुरक्षित, ये सब जल परिवहन के फायदे हैं। 2014 में राकेश मोहन कमेटी ने देश में जलमार्ग विकसित करने के साथ परिवहन को किफायती बनाने और आबादी का दबाब करने के लिए सड़क, जल, हवाई और रेल मार्गों को जोड़कर ग्रिड बनाने का सुझाव दिया था। अब उस पर तेजी से अमल का वक्त आ गया है।
कैलाश एम बिश्नोई, जोधपुर</strong>
वोट की कीमत: चुनाव आते ही बहुत सारे मुद्दों का उभरना शुरू हो गया है। हर लोकतांत्रिक देश के लिए चुनाव बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। पर भारत में चुनाव एक खेल बन गया है, जहां पार्टी के लोग जनता के हित के बारे में बात नहीं करते, बल्कि एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में लगे रहते हैं। भारत में चुनाव का माहौल अब नाम मात्र का ही रह गया है। दुर्भाग्य तो यह है कि लोग अभी तक अपने मताधिकार का मतलब समझ नहीं पाए है। लोग लालच में आकर अपना मत दे रहे हैं। अब तो पैसों पर वोट बिकने लगे हैं जिसका फायदा नेताओं को मिलता है। लोग कुछ पैसों के कारण अपना अधिकार बेच देते हैं। छत्तीसगढ़ में हो रहे चुनाव के दौरान पुलिस ने भारी मात्रा व दूसरी चीजें पकड़ी हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि लोग अपना भविष्य की कीमत शराब से लगा रहे हैं। लालच में आकरजनता किसी खराब नेता को चुनकर कुर्सी पर बिठा देती है और वह नेता पांच साल तक कुर्सी का फायदा उठाता है। एक लोकतांत्रिक देश में जनता के फैसले से ही सरकार बनती है। ऐसे में यहां के जनता अपना वोट कुछ पैसों के लिए बेचती रहे तो आने वाले समय मे देश की स्थिति नाजुक हो जाएगी। इसलिए लोगों को अपने वोट की कीमत को पहचानने की जरूरत है, ताकि सूझ-बूझ के साथ अच्छे नेता को चुना जा सके।
अभिजीत मेहरा, गोड्डा
नागरिकता का सवाल: असम में भारतीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर पिछले कई महीनों से भारतीय राजनीति और असम राज्य में बहुत उथल-पुथल देखने को मिली। हाल ही में असम में दूसरी अनुसूची में चालीस लाख लोगों के भारतीय नागरिकता से बाहर होने की रिपोर्ट सामने आई है। कोर्ट और संसद ने 15 दिसंबर तक भारतीय नागरिकता होने का दावा करने की मंजूरी दी है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि अगर इतनी बड़ी संख्या में लोग भारतीय नागरिक होने का दावा सिद्ध नही कर पाए तो क्या उन्हें देश से बाहर भेजना उचित होगा? दूसरा पक्ष देखें तो क्या पड़ोसी देश यानी बांग्लादेश इतनी बड़ी संख्या के लोगों को अपने देश में शरण देगा? 1971 से बांग्लादेश से आए लोगों को भारत में रहते हुए लगभग पांच दशक होने जा रहे हैं। अगर ऐसे में उन्हें भारत से बांग्लादेश की ओर रुख दिखा दिया गया तो वे हिंसा का रूप धारण कर सकते है। सरकार और अदालत को उन चालीस लाख लोगों के हित, मान-मर्यादा को ध्यान में रखते हुए बांग्लादेश से संधि कर, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बांग्लादेश के लोग इन चालीस लाख लोगों को नीचा, हीन, दुर्व्यवहार जैसी यातनाएं न दें, क्योंकि यह समस्य हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका में तमिलों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार के रूप में देखी जा सकती है।
अखिल सिंघल, नई दिल्ली
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