कोई भी अपने पद पर हमेशा नहीं रहता। पर डॉ रघुराम राजन की रिजर्व बैंक के गवर्नर के पद से जिस तरह विदाई हुई वह दुखद है। उन्हें एक और कार्यकाल मिलना चाहिए था। वह दो तो दूर, उनके कार्यकाल के अंतिम दिनों में भाजपा के एक नेता ने उनके खिलाफ लगातार अपमानजनक बयान दिए और पार्टी चुप्पी साधे रही। डॉ रघुराम राजन एनपीए को लेकर सख्त थे। क्या यह उनका गुनाह था? क्या वे ब्याज दरों में लगातार कटौती करते जाते और महंगाई की फिक्र न करते? डॉ राजन के खिलाफ अपमानजनक बयानों पर सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के रवैए से गलत संदेश गया है।

सुनील त्यागी, कविनगर, गाजियाबाद


दाल का हाल
दाल की कीमत दो साल में दुगुनी हो गई। यह मोदी सरकार के दो साल की कामयाबी का एक अहम मुकाम है। क्या पता तीन साल पूरा होते-होते दाल की कीमत तीन गुनी हो जाए। यह उस सरकार के राज में हो रहा है जो महंगाई पर काबू पाने के वायदे पर आई है। हवाई वायदों का यही हश्र होता है। दाल गरीब की थाली से गुम हो गई। अच्छे दिन आने का और क्या प्रमाण चाहिए! बहरहाल, दाल की बढ़ती जाती कीमत से हमें चेत जाना चाहिए। आखिर समस्या की जड़ कहां है? जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में दलहन की पैदावार तेजी से घटी है। आयात का सहारा लेकर सरकार दाल पर मचने वाली चीख-पुकार कुछ कम कर देती है। पर वह दलहन की खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित क्यों नहीं करती? प्रोत्साहन केवल शाब्दिक नहीं हो सकता। दलहन की खेती को प्रोत्साहित करने का सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि सरकार हर साल दालों के लिए आकर्षक न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करे।

राकेश रंजन, पूर्वी लोहानीपुर, पटना</strong>