बीमा विधेयक का देशव्यापी विरोध होता रहा है। लेकिन वामदलों के तार्किक प्रतिरोध के बीच सभी विपक्षी दलों, जिनमें कांग्रेस भी किंतु-परंतु के साथ विरोध में शामिल थी, के सहयोग से इस विधेयक का एकाएक पारित होना कई सवालों को जन्म दे गया है। पिछले बजट सत्र में राज्यसभा में इस पर भारी विरोध के हालात और पारित न हो पाने के भय से सत्रावसान के दूसरे ही दिन अध्यादेश लाकर इसे लागू करने के तरीके का भी कड़ा विरोध देखने को मिला था। कांग्रेस ने भी कहा था कि जिस तरीके से लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को धता बता कर यह सब किया गया है, ऐसी स्थिति में वह बीमा बिल का समर्थन नहीं करेगी। कांग्रेस के समर्थन के बिना राज्यसभा में इसका पारित होना असंभव था। हालांकि यह बिल कांग्रेस के शासनकाल में ही लाया गया था और भाजपा और कांग्रेस का इस पर नीतिगत विरोध नहीं रहा है।
हकीकत तो यह है कि कांग्रेस हो या भाजपा, विपक्ष में रहते हुए जनदबाव के चलते इस मसले पर केवल दिखावटी विरोध करती रही हैं। बीमा उद्योग को देशी-विदेशी पूंजी के लिए खोलने की नीति की शुरुआत मनमोहन सिंह के वित्तमंत्रित्व काल में कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार के नेतृत्व में हुई थी। सतत जारी रहे भारी जनविरोध के चलते न तो कांग्रेस और न उसके बाद आई संयुक्त मोर्चे की सरकार इसे आगे बढ़ा सकी। इसके बाद आई अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने कांग्रेस के समर्थन से बीमा नियमन और विकास प्राधिकरण विधेयक 1999 पारित करवा कर बीमा क्षेत्र में छब्बीस प्रतिशत तक विदेशी निवेश की इजाजत दी। अब वर्तमान विधेयक पारित होने के बाद से यह उनचास प्रतिशत कर दी गई है।
दरअसल, विदेशी पूंजी अपने ऊपर कोई नियंत्रण नहीं चाहती है। विदेशी निवेश छब्बीस प्रतिशत से शुरू होकर आज उनचास प्रतिशत पर चला गया है पर विदेशी निवेशक इसे अस्थायी मानते हैं। वे हमारे शासक दलों को इसे और आगे ले जाने के लिए प्रेरित करते रहेंगे और हमारी सरकार उनकी इच्छापूर्ति के लिए देशहित और अपने आत्मनिर्भर आर्थिक विकास की बलि चढ़ाती रहेगी। यहां मुद्दा देश और उसकी संप्रभुता से कहीं ज्यादा दलों और नेताओं के व्यक्तिगत स्वार्थ से जुड़ा है। जिस राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण प्रस्ताव में विपक्ष की एकजुटता ने कालेधन पर सरकार की विफलता का संशोधन पारित किया, वह एकजुटता इतनी जल्दी टूट कैसे गई? कोयला घोटाले में न्यायालय की ओर से पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को समन क्या जारी हुआ, बीमा बिल में किंतु-परंतु लगाती कांग्रेस मोदी सरकार के सामने समर्पण कर गई।
राज्यसभा में विरोध में मतदान करने वाले वामदल अकेले रह गए। सपा, जद, बसपा, तृणमूल, द्रमुक के विरोध में वाकआउट के बीच भाजपा-कांग्रेस की जुगलबंदी से बिल पारित हो गया। मनमोहन सिंह को बचाने के बदले हालात में अब वह दिन दूर नहीं जब देशव्यापी विरोध की अनदेखी कर भूमि अधिग्रहण बिल को येनकेन प्रकारेण पारित करवाने में जुटी मोदी सरकार की राह में कांग्रेस भी हमराह बनी नजर आए। ऐसे में राहुल के वनवास और संजीवनी की तलाश का क्या कोई अर्थ रह जाएगा?
रामचंद्र शर्मा, तरुछाया नगर, जयपुर
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