बिना विचारे और पुख्ता इंतजाम किए हड़बड़ी में कालेधन को बाहर निकालने का श्रेय लेने के उतावलेपन में जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने पांच सौ और हजार के नोट बंद किए, उससे करोड़ों की रोजी-रोटी के साथ जीवन पर बन आई। रुपए का इंतजाम न होने से कई शादियां कोहराम में बदल गर्इं। कुछ ने आत्मसम्मान गंवाने के भय में आत्महत्या कर ली। कई बैंकों की कतारों में खड़े-खड़े अकाल मृत्यु के शिकार हो गए। अब तक सत्तर से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। कालेधन को बाहर निकालने की योजना पर इतराती सरकार क्या इसके लिए जिम्मेदार नहीं? जिन्होंने टेलीविजन पर आकर, बड़े उत्साह से इसकी घोषणा की थी, क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि इन अकाल मौत के शिकार हुए लोगों की सुध लेते?
किसी के घर में खाने-पीने के जुगाड़ की रकम नहीं है, किसी के पास इलाज के पैसे नहीं। रोजमर्रा की जरूरतों और बैंक में जमा अपनी ही रकम निकालने के लिए लंबी कतारों, पुलिसियां डंडे और अकाल मौत के शिकार होने की चौतरफा खबरों के बीच भी बेशर्मी से यह कहा जा रहा है कि इस फैसले को समूचे देश की जनता का समर्थन हासिल है। जबकि संसद और सड़कों पर उठाए गए सवालों और बहसों के जवाब देने को सरकार तैयार नहीं है।
केंद्र सरकार, भारतीय रिजर्व बैंक या वे बैंक जिनमें लोगों के खाते हैं, धारक और जमाकर्ता को रुपए जमा करने के वचन को पूरा क्यों नहीं कर पा रहे हैं? सरकार ने न प्रभावितों का अंदाज लगाया और न ही कोई कारगर इंतजाम किया। न वैकल्पिक नोटों का इंतजाम किया और न एटीएम में इसके अनुरूप परिवर्तन किए। बिना सोचे-समझे नोटबंदी का ऐलान कर दिया। परिणाम अभाव, पीड़ा और अकाल मृत्यु की नाखत्म होती दर्दभरी दास्तानें। बिना नगदी के एटीएम और बैंक शाखाओं के सामने देश लाचार है। एटीएम में बिना नोटबंदी के जो राशि भरी जाती थी, नोटबंदी के बाद वह उसका दस प्रतिशत ही रह गई। जबकि राशि निकलवाने वालों की संख्या सामान्य दिनों की तुलना में कई गुणा बढ़ गई। वहीं चलन में मुद्रा मात्र चौदह प्रतिशत रह गई और बिना बड़े नोटों के उनकी कोई प्रासंगिकता भी नहीं रही। इसका हिसाब खुद लगाया जा सकता है कि 500 और 1000 रुपए के नोट बंद होने के बाद बाकी बचे 100, 50, 20, 10 आदि नोट के भरोसे कितने लोगों को निपटाया जा सकता है, जिनकी कुल नगद व्यवहार में हिस्सेदारी मात्र चौदह प्रतिशत है। बैंकों में लाइन लगी रही, लेकिन उनके पास देने के लिए रकम ही नहीं थी। लोग बार-बार आकर खाली हाथ लौटने को मजबूर कर दिए गए।
निर्णय सरकार के, लेकिन मरे बैंक कर्मचारी-अधिकारी और आमजन। अरबों का भ्रष्टाचार करने वाले किसको कोई दिक्कत हुई है और कौन लाइन में खड़ा हुआ? दूसरी ओर, निर्णय लेने वाले व्यंग्य कर रहे हैं कि ये जो लाइन में खड़े हैं, कालेधन वाले हैं। ईमानदार को किस बात का डर? लेकिन ईमानदार खाए-पिए कैसे, इसकी चिंता उसको नहीं। चौतरफा भटकाव और अघोषित तानाशाही पर उतरी सरकार को जैसे कुछ सूझ नहीं रहा। न अर्थशास्त्र का ज्ञान, न सामाजिक चिंता, केवल अपनी राजनीति चमकाने के लिए लोगों को ही नहीं, देश की अर्थव्यवस्था को अकाल मृत्यु के मुहाने पर धकेल दिया गया है।
’रामचंद्र शर्मा, तरूछाया नगर, जयपुर</p>