उत्तर प्रदेश में उन्नाव जिले की बांगरमऊ तहसील में झोलाछाप डॉक्टर ने एक ही सूई से इंजेक्शन लगा कर अट्ठावन लोगों को एचआइवी संक्रमित कर दिया। यह घटना प्रकाश में तब आई जब प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग ने इलाके में शिविर लगा कर लोगों की जांच कराई जिसमें पाया गया इनमें अधिकतर मरीज एचआइवी संक्रमित हैं। यह घटना हमारे देश की स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खोलती है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में, जहां ग्राम स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच न के बराबर है, वहां ऐसी घटना होना कोई आश्चर्यजनक नहीं है। राज्य में लगभग अस्सी प्रतिशत चिकित्सकों की कमी है। गरीब ग्रामीण के पास इतना पैसा और साधन नहीं हैं कि जिला अस्पतालों तक जा सके। इस स्थिति का लाभ झोलाछाप उठाते हैं जिनके पास कोई चिकित्सकीय ज्ञान नहीं है। किसी डॉक्टर के पास इंजेक्शन लगाना सीख कर और कुछ दवाओं के नाम याद करके ये गांवों में अपना धंधा जमा लेते हैं। घर के पास ही बेहद सस्ते में इलाज कर ये जल्दी ही लोकप्रिय हो जाते हैं और लोगों की जान से खिलवाड़ करते रहते हैं।

इन सब त्रासदियों के पीछे असली अपराधी हमारी बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था है। जहां तय मानक के अनुसार पचास हजार की आबादी पर एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र होना चाहिए वहां लाखों लोगों की आबादी पर भी स्वास्थ्य केंद्र उपलब्ध नहीं है। स्वास्थ्य सुविधाओं और चिकित्सकों की भारी कमी के चलते गरीब लोग झोलाछाप की शरण में जाने को मजबूर हैं। हमारे स्वास्थ्य तंत्र की एक और बड़ी कमी समूची स्वास्थ्य व्यवस्था को चिकित्सक, नर्स और फार्मासिस्ट तक केंद्रित कर दिया जाना है। आजकल स्वास्थ्य सेवाओं में इन पदों के अलावा भी शिक्षित और पेशेवर लोग हैं जिन पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है। काउंसलर, सोशल वर्कर आदि पदों पर कार्यरत योग्य लोग भले ही सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था में नए हों पर इन्होंने कम समय में अपनी छाप छोड़ी है। ऐसे पदों को भी उतनी ही महत्ता दी जानी चाहिए। चिकित्सक को केवल इलाज से संबंधित कार्यों में लगाना चाहिए न कि प्रशासनिक कार्यों में। हर चिकित्सक के लिए सरकारी नौकरी में आने पर दो वर्ष ग्रामीण इलाकों में सेवा देना अनिवार्य करना भी एक अच्छा उपाय साबित हो सकता है। वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों जैसे आयुर्वेद, यूनानी, होम्योपैथी, इलेक्ट्रो-होम्योपैथी के चिकित्सकों को भी कुछ सुरक्षित एलोपैथी दवाएं देने की अनुमति सरकार को देनी चाहिए जिससे मरीज अनपढ़ लोगों के हाथों अपनी जान न गवाएं।

इस घटना का एक सकारात्मक पहलू भी है। ऐसी घटनाएं पहले भी होती रही होंगी पर ये अब पकड़ में आने लगी हैं। राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम के अंतर्गत जो नए दिशा-निर्देश आए हैं उनमें सामुदायिक स्तर एचआईवी जांच की जा रही है। जांच की सुविधा जरूरतमंदों के दरवाजे तक पहुंचाई जा रही है, उसी का परिणाम है कि ऐसी घटनाएं पकड़ में आ रही हैं। ऐसे शिविरों में संक्रमित पाए गए रोगियों को पेशेवर काउंसलर इस बीमारी से लड़ने और स्वस्थ जीवन जीने की सलाह देते हैं और उपचार की महत्ता बताते हैं। ऐसे प्रयासों की सराहना भी की जानी चाहिए। बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था में ऐसे सजग लोग डूबते को तिनके का सहारा हैं यह अलग बात है कि इनका वेतन इनके ईमानदार प्रयासों के साथ न्याय नहीं करता। सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य का पैसा विज्ञापनों और पोस्टरों पर खर्च करके अपनी छवि बनाने में लगी है और लोग बिना इलाज के मरने को मजबूर हैं।

’अश्वनी राघव ‘रामेंदु’, नई दिल्ली</strong>