बेरोजगारी भारत के लिए सिर दर्द बन गया है और इसके कारण करोड़ों युवाओं को घर बैठने पर मजबूर होना पड़ा है। देश में बेरोजगारी की समस्या कोई नई नहीं है। ‘गरीबी हटाओ’ का अभियान आज से लगभग पैंतालीस वर्ष पहले इंदिरा गांधी ने प्रारंभ किया था। लेकिन आज इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्ध में बेरोजगारी अपनी जड़ बहुत मजबूत कर चुकी है। जिस तरह उसके उन्मूलन के लिए प्रयास किए जा रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि राहें बेहद मुश्किल हैं। एक युवक के बेरोजगार रहने से न सिर्फ उसके अपने रहन सहन पर असर पड़ता है, बल्कि उस पर आश्रित पूरे परिवार को निम्न स्तर की जिंदगी भी नसीब नहीं हो पाती है।
इसी अक्तूबर में बेरोजगारी की दर 8.5 फीसद हो गई, जो पिछले तीन वर्षों में सबसे ज्यादा है। बेरोजगारी की यह दर अगस्त 2016 के बाद सबसे ज्यादा है। ताजा आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में बेरोजगारों की फौज इकट्ठा हो रही है। भारत जैसे देश में शिक्षा और रोजगार के अवसरों की कमी, कौशल की कमी, प्रदर्शन संबंधी मुद्दे और बढ़ती आबादी सहित कई कारक इस समस्या को बढ़ाने में अपना योगदान देते हैं। इस कारण से भारत के जीडीपी पर भी असर साफ दिख रहा है।
बेरोजगारी की वजह से गंभीर सामाजिक-आर्थिक समस्याएं खड़ी होती हैं। इससे न केवल एक व्यक्ति, बल्कि पूरा समाज प्रभावित होता है। यह बेवजह नहीं है कि आज बेरोजगारी एक सामाजिक समस्या भी बन गया है। सरकारें जो कदम उठाती हैं, वे प्रभावी नहीं हैं। बल्कि आमतौर पर यह दिखावे के लिए होता है। इसके किए ठोस कदम उठाने की जरूरत है। नीति निमार्ताओं और नागरिकों को अधिक नौकरियों के निर्माण के साथ ही रोजगार के लिए सही कौशल प्राप्त करने के लिए सामूहिक प्रयास करने चाहिए।
’अनु मिश्रा, बिठुना, सिवान
देश की साख
सदन में नागरिकता संशोधन विधेयक लाया गया। इस पर सदन में काफी तीखी बहस हुई और हंगामा भी हुआ। पर भारत के एक पंजीकृत नागरिक होने के नाते कुछ बातों पर गौर करना चाहिए। इस विधेयक को लाना जितना आसान था, उससे कहीं अधिक मुश्किल इसे पारित कराना और लागू करना है। जो हो, विधेयक कहीं न कहीं हमारे धर्मनिरपेक्षता और संविधान के मूल ढांचों पर एक प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। अगर विवेक के साथ सोचा जाए तो कहीं न कहीं ये देश के दो धर्म विशेष समुदाय के बीच दूरियां बढ़ाने का काम करेगा।
विधेयक के प्रावधानों पर गौर किया जाए तो लगता है कि यह किसी खास धर्म वाले समुदाय को इसके दायरे से बाहर निकालने का प्रयास है। अगर इसे सदन से पास करा कर देश भर में लागू कर दिया जाए तो कहीं न कहीं यह हमारे राष्ट्रनिमार्ताओं की सोच, उद्देश्य, और उनकी कल्पना के भारत का गला घोंटना होगा। हम 1947 में काफी संघर्ष और बलिदानों के बाद एक स्वतंत्र देश बने और तुरंत हमारा विभाजन भी हो गया। हम धर्म की तलवार से दो भागों में बंट गए। अलग देश के सवाल के साथ पाकिस्तान बन गया और शेष भारत में हर धर्म के लोगों को रहने, अपना गुजर-बसर करने की आजादी मिली। ये बातें संविधान के मौलिक अधिकारों में भी कही गई है।
अब सवाल उठता है कि इस विधेयक में ऐसा क्या है जो हमारे मूल ढांचे पर असर डालता है? अगर हम अपने पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों को आसरा देकर भारत के नागरिक बना सकते हैं तो फिर पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश ही क्यों? श्रीलंका के तमिल क्यों नहीं? उनके साथ भी तो वहां भेदभाव होता है! इस बात की क्या गारंटी है कि आज जो प्रयास मुसलमानों के साथ हो रहा है, वह भविष्य में किसी और समुदाय के साथ नहीं होगा? अगर इसके दूरगामी परिणामों पर गौर करें तो लगता है कि जब-जब हिंदुओं के समकक्ष कोई समुदाय आकर खड़ा होगा, तब-तब हम नागरिकता संशोधन करके उस समुदाय को बाहर निकाल देंगे।
अगर देश को किसी खास धर्म का देश बनाना है तो फिर संविधान में ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द का कोई मतलब नहीं रह जाता है। हम शायद भूल रहे हैं कि अगर आज हम दुनिया से आंख में आंख डाल कर बात कर रहे हैं, वह शक्ति और जज्बा हमें हमारी धर्मनिरपेक्षता से मिली है। यह जिस दिन समाप्त होगी, भारत को दुनिया भर में एक कमजोर देश माना जाएगा। हमें याद रखना चाहिए कि कभी कि एक पंख से उड़ान नहीं भरी जा सकती है।
’धीरज कुमार, दरभंगा, बिहार</em>