करीब पैंतीस साल पहले एक फिल्म आई थी ‘हादसा’। इस फिल्म में एक गाना था- ‘ये मुंबई शहर हादसों का शहर है…’। अब यह बात बिल्कुल सच हो चुकी है। मुबंई में जिस तरह से इमारतें ढह जाने के हादसे सामने आ रहे हैं उनसे यह सच साबित होने लगा है। पिछले महीने बारिश के दौरान एक उपनगर में दीवार ढह जाने से उनतीस लोग मारे गए थे। अब डोंगरी इलाके में सौ साल पुरानी इमारत ढह गई, जिसमें तेरह लोग मारे गए। देखा जाए तो मुंबई में पिछले चार दशकों में इस तरह के हादसों में नौ सौ से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। ऐसी हर घटना के बाद जांच बिठा दी जाती है और दोषी को सख्त सजा देने की बात होती है। लेकिन सवाल है कि सजा होती किसको है? गुनहगार तो मजे से खुलेआम घूम रहे हैं। मुंबई और कोलकाता में पुरानी इमारतों की संख्या सबसे ज्यादा है। इन इमारतों की समय पर मरम्मत का न होना तो इसके लिए जिम्मेवार है ही, लेकिन हमारा सौ साल पुराना किरायेदार अधिनियम भी कम दोषी नहीं है। इसी कानून का फायदा उठा कर आज भी कई लोग महज दो रुपए से लेकर पचास रुपए तक के किराए में रह रहे हैं। क्या इस पैसे से मकान मालिक मरम्मत का काम करा सकता है? जवाब है- हरगिज नहीं। ऐसे में तो फिर इंतजार कीजिए एक और इमारत गिरने का। सवाल है कब चेतेगी सरकार?
’जंग बहादुर सिंह, जमशेदपुर
विश्व कप और सवाल
इस बार का क्रिकेट विश्व कप हमेशा यादगार बना रहेगा। इसलिए नहीं कि इंग्लैंड ने चवालीस साल में पहली बार विश्व कप जीता,बल्कि इसलिए कि न्यूजीलैंड के साथ सरासर अन्याय हुआ जो इस कप का असली हकदार था। पचास ओवरों में दोनो टीमों ने दो सौ इकतालीस रन बनाए और बराबरी (टाई) हुई तो नतीजे के लिए एक सुपर ओवर खेला गया। उसमें भी बराबरी हुई तो चौकों-छक्कों की संख्या को आधार बना कर इंग्लैंड को विजेता घोषित कर दिया गया। इसे लेकर क्रिकेट जगत में खासी आलोचना हुई। यह पूरी तरह से नाइंसाफी है। सवाल है कि दोनो टीमों को संयुक्त रूप से विजेता क्यों नहीं ठहराया गया? दरअसल अंपायरों की बड़ी गलती की वजह से इंग्लैंड को पहले ही एक रन ज्यादा दे दिया गया था, वरना आज नजारा कुछ और होता। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आइसीसी) को अपने इस नियम में शीघ्र ही सुधार लाना चाहिए, ताकि भविष्य में किसी और टीम के साथ इस तरह का अन्याय न हो।
’अनिल रामचंद्र तोरणे, तलेगांव दाभाडे (पुणे)
दोहरा रवैया
जब राम-रहीम के आश्रम में गैर-कानूनी गतिविधियां पकड़ में आई थीं तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने वहां का चप्पा-चप्पा छान मारा था। उसके आश्रम की गुफाएं, उनके भीतर क्या-क्या था, वहां क्या-क्या होता होगा- इन सब बातों पर विस्तार से कई दिन तक खबरें दिखाई गई थीं। इसी तरह तथाकथित संत रामपाल के आश्रम के बारे में भी लोगों को चैनलों की खबरों से ही चौंकाने वाली जानकारियां मिलीं थीं। संत आसाराम के बारे में तो कहना ही क्या? लेकिन कुछ दिनों पहले बिजनौर की एक मस्जिद में पुलिस को हथियारों का जखीरा मिला। तब वहां के चप्पे-चप्पे की जानकारी जुटाने की कोई कोशिश किसी मीडिया संस्थान ने नहीं की। सवाल है कि ऐसा दोहरापन किसलिए? ये किस तरह की आजादी का लाभ हमारा मीडिया उठा रहा है?
’पूनम मित्तल, मेरठ</p>
