नीरज का जाना
हिंदी कविता का इतिहास गेय कविता का ही इतिहास है। पिछले कुछ दशकों में जहां गद्य कविता का बोलबाला रहा है वहां भी कविता की लय को बचाने का काम गीत, गजलों और दोहों में गंभीरता से होता रहा है भले ही आलोचकों ने उसकी उपेक्षा की हो। यह सही है कि मंच पर उत्तरोत्तर कविता का स्तर गिरता चला गया और कभी जिन मंचों पर महाप्राण निराला, महादेवी, पंत, बच्चन, दिनकर, दुष्यंत कुमार, अदम गोंडवी जैसे अनेक रचनाकारों की उपस्थिति मानवीय गरिमा और उदात्त जीवन मूल्यों का साहित्यिक प्रतिमान हुआ करती थी वहीं अब वह धीरे-धीरे आयोजकों और प्रायोजकों के प्रबंध कौशल का मंच होकर रह गई। वहां कविता से अधिक कवि सम्मेलन की सफलता महत्त्वपूर्ण हो गई लिहाजा, कविता में गिरावट चिंताजनक स्थिति में आती चली गई।
ऐसे में गीतपुरुष नीरज का जाना इसलिए भी दुखद है कि उन्होंने केवल मंचों से ही नहीं बल्कि अपनी युगबोधी दृष्टि से भी कविता की अनेक पीढ़ियों का मार्गदर्शन किया। तब जब गद्य होती हुई हिंदी कविता के पाठकों की परिधि केवल विश्वविद्यालयी और अकादमिक परिसरों में सिकुड़ने लगी थी, नीरज जी ने अपनी प्रगतिशील जीवन दृष्टि और गीत प्रस्तुति के अपने अनूठे अंदाज द्वारा देश ही नहीं, दुनिया में कविता को गीत का पर्याय बनाया और गीत की परंपरा को विकसित करने में अमूल्य योगदान दिया।
नीरज जी सच्चे अर्थों में भारतीयता के उपासक थे जिनकी जिंदगी और काव्यभाषा दोनों में ही प्रेम और मिलनसारिता का साझा संस्कार था। चाहे जीवन की दुश्वारियां हों चाहे बालीवुड की फिल्में, प्रेम ही उनकी साधना रही और एक हद तक उनका जीवन दर्शन भी। वे उन चंद कवियों में से थे जो मंचीयता की शर्तों से समझौता किए बगैर अपने काव्य विवेक से कविता पाठ करते थे। उनके गीतों और गजलों में आम आदमी की चिंताओं से लेकर फकीरों की मस्ती की अनेकानेक छवियां विद्यमान हैं। वे अपने देश, अपने परिवेश और अपनी मिट्टी की गंध में रचे बसे कवि थे। ऐसा लगता है मानो उनके जाने से गीताकाश पर चमकता एक उज्ज्वल ध्रुवतारा डूब गया हो।
विनय मिश्र, अलवर, राजस्थान</strong>
पलायन के पीछे
देव भूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड से लोग तेजी से शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। लगातार गांव के गांव खाली हो रहे हैं। वहां खेत-खलिहान, जंगल सब वीरान होने की कगार पर हैं। इससे वहां की संस्कृति, खान-पान, वेशभूषा, बोली, लोकगीत आदि भी खतरे में हैं। इस पलायन का सबसे बड़ा कारण बेरोजगारी है जिसके चलते कोई युवा उत्तराखंड में नहीं रहना चाहता। जो बचे हुए हैं वे भी पलायन कर रहे हैं। इसके मद्देनजर सरकार को उत्तराखंड में रोजगार सृजन को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए वरना वहां सब वीरान हो जाएगा।
आशीष, राम लाल आनंद कॉलेज, दिल्ली</strong>
