अमर्त्य सेन अपनी किताब में तीन बच्चों- अन्ना, बॉब और कार्ला के बीच एक बांसुरी के स्वामित्व को लेकर हुए विवाद का उदाहरण देते हैं। अन्ना यह कह कर बांसुरी पर अपना हक जताता है कि उसे ही बांसुरी बजानी आती है। वहीं बॉब का तर्क है कि वह बेहद गरीब है और उसके पास कोई खिलौना नहीं है लिहाजा, बांसुरी उसे मिलनी चाहिए। कार्ला का तर्क है कि उसने कड़ी मेहनत करके बांसुरी बनाई है इसलिए उस पर उसी का अधिकार है। अब इन तीन बच्चों के तर्क के आधार पर फैसला करना है। सेन का मानना है कि मानवीय आनंदानुभूति, गरीबी निवारण और अपने श्रम के उत्पादन का आनंद उठाने के अधिकार पर आधारित किसी भी दावे को निराधार कह कर ठुकरा देना सहज नहीं है।

आर्थिक समतावादी के लिए बॉब के पक्ष में निर्णय देना आसान है क्योंकि उनका आग्रह संसाधनों के अंतर कम करने को लेकर है। दूसरी ओर स्वातंत्र्यवादी सहज भाव से बांसुरी बनाने वाले यानी कार्ला के पक्ष में फैसला सुना देगा। सबसे अधिक कठिन चुनौती उपयोगिता आनंदवादी के समक्ष खड़ी हो जाती है लेकिन वह स्वातंत्र्यवादी और समतावादी की तुलना में अन्ना के दावे को प्रबल मानते हुए उसके पक्ष में फैसला दे देगा। उसका तर्क होगा कि चूंकि सिर्फ अन्ना को ही बांसुरी बजानी आती है इसलिए उसे सर्वाधिक आनंद मिलेगा। सेन का मानना है कि तीनों बच्चों के निहित स्वार्थों में कोई खास अंतर नहीं है फिर भी तीनों के दावे अलग-अलग प्रकार के निष्पक्ष और मनमानी रहित तर्कों पर आधारित हैं।

यहां सेन यह समझाना चाह रहे हैं कि न्याय के भी अपने कुछ संदर्भ होते हैं जो समाज की आवश्यकता और विचारधारा बदलने से बदल जाते हैं। भारत जैसे समाज में, जहां व्यापक असमानता है, वहां हमें आवश्यकता थी सामाजिक न्याय की और इसी सामाजिक न्याय के तहत हमने आरक्षण का प्रावधान किया ताकि समाज में, राजनीति में और आधुनिक अर्थव्यवस्था के जो शीर्ष पद हैं, उनमें जो सत्ता का केंद्र है, वहां दलित समाज की एक न्यूनतम उपस्थिति बन सके।

जब से एक दलित लड़की ने सिविल सेवा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया है तब से आरक्षण को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ गई है। एक भ्रांति, जो सवर्ण समाज के विद्यार्थियों द्वारा फैलाई जा रही है कि ‘सभी निर्धनों को आरक्षण का लाभ मिलना, अर्थात आरक्षण का अधिकार आर्थिक होना चाहिए’, इस विषय में यह तथ्य जानने की आवश्यकता है कि आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। गरीबों की आर्थिक वंचना दूर करने के लिए सरकार अनेक कार्यक्रम चला रही है। अगर आवश्यकता हो तो इन निर्धनों के लिए सरकार और भी कई कार्यक्रम चला सकती है। असल में आरक्षण एक विशेष स्थिति से निपटने का औजार है और वह विशेष स्थिति यह है कि समाज का जो वर्ग सिर्फ ही पिछड़ा नहीं रहा, बल्कि जिसे बहिष्कृत किया गया हो, उसे अगर कुछ चुनिंदा कुर्सियों पर बैठाना है तो उन कुर्सियों पर निशान लगा कर उन्हें आरक्षित कर देना एक बेहतर तरीका है। पर दिक्कत यह है कि अधिकारी बनने का सपना देखने वाले कथित उच्च जातियों के ये विद्यार्थी अपनी पूर्वधारणा और जातिगत भावना से बाहर ही नहीं निकल पाते। ये न हमारा समाज देखते हैं और न अवसरों की गैर-बराबरी को समझने की कोशिश करते हैं। ये आरक्षण को खत्म करना चाहते हैं या उसमें खुद को भी शामिल करवाना चाहते हैं।

’अब्दुल्लाह मंसूर, जामिया, नई दिल्ली</strong>


घातक फसल
भारतीयों के आराध्य कृष्ण और सीता जैसे देवी-देवता अपने माता-पिता की जैविक संतान न होकर पालित थे। लेकिन उन्होंने कोख के जनों से भी अधिक स्नेह पाया और अपने माता-पिता को अपने सद्कर्मों का अप्रतिम प्रतिदान दिया। जब ये हमारे आराध्य हैं तब हम इनसे क्यों नहीं सीखते जो संतान पैदा कर सकने की क्षमता न होने पर स्वयं को अधूरा समझ बैठते हैं? इसी कड़ी में धर्म के तथाकथित ठेकेदार रामशंकर तिवारी उर्फ बाबा परमानंद जैसे लोग उपज जाते हैं जो संतान का वर देने के बहाने महिलाओं का यौन शोषण करते हैं। दोष दरअसल उनमें नहीं बल्कि हमारी सोच में है जो परमानंद जैसी घातक फसल को खाद-पानी देती है। परमानंद के चक्कर में फंस कर अपना सब कुछ गंवाने वाले लोग क्या वही हैं जो कृष्ण और सीता को पूजते हैं? बिल्कुल नहीं। ऐसे लोग किसी भी धर्म और देवी-देवता को मानने वाले नहीं होते। अगर होते तो उनसे सीख कर परमानंद के आश्रय में जाने की बजाय किसी अनाथालय का दरवाजा खटखटाते और अपने कृष्ण और सीता को घर ले आते।

’अंकित दूबे, जनेवि, नई दिल्ली


समझ से बाहर
रिजर्व बैंक के पिछले गवर्नर डी सुब्बाराव ने 2010 में इस्लामी बैंकिंग को अनुपयुक्त बता कर ठुकरा दिया था। इस बैंकिंग में ब्याज का लेन-देन निषिद्ध होता है। पर उधार देने वाला बैंक कारोबारी/ उद्योगपति द्वारा कमाए गए मुनाफे में हिस्सेदारी प्राप्त करता है। इस कारण ऋण लेने वाला अपनी बैलेंस-शीट में कम से कम लाभ दिखाता है। स्पष्ट है कि इससे सरकार को टैक्स भी कम प्राप्त होता है। दोनों वजहों से इस्लामी बैंकिंग एक परेशान करने वाली व्यवस्था है। खुद मुस्लिम देशों में यह विफल हो चली है। आए दिन झगड़े खड़े होते रहते हैं। इस सबके बावजूद भारतीय रिजर्व बैंक के वर्तमान गवर्नर रघुराम राजन द्वारा इसका समर्थन न सिर्फ आश्चर्यजनक है बल्कि समझ से बाहर भी है। क्या अपनी महंगी ऋण नीति द्वारा उद्योगों को त्रस्त करने से उनका मन नहीं भरा जो अब भारतीय बैंक क्षेत्र को खस्ता बनाने की सोच रहे हैं?

’अजय मित्तल, खंदक, मेरठ</strong>


विकल्प की खोज
पीयूष द्विवेदी ने ‘बोतलबंद पानी का विकल्प’ (21 मई) लेख में पानी की पैकिंग के लिए प्लास्टिक की बोतलों के बजाय मिट्टी की सुराही, छोटे मटके या मिट्टी के अन्य बर्तन बतौर विकल्प सुझाए हैं। प्लास्टिक को लेकर चिंता जायज है, उससे सब सहमत भी होंगे। लेकिन लेखक का सुझाव अत्यंत अव्यावहारिक है। सुराही, छोटे मटके या बर्तन में पानी रखा जा सकता है, पैकिंग भी की जा सकती है पर उसका परिवहन न्यूनतम नुकसान पर कैसे होगा? फिर मिट्टी के बर्तन में पैक किएगए एक लीटर पानी का वजन बढ़ जाएगा। परिवहन कोई दस-बीस किलोमीटर तक नहीं किया जाता, सैकड़ों किलोमीटर होगा, यह भी सर्वविदित है। इन समस्याओं का हल कैसे निकलेगा? जहां तक मिट््टी के बर्तन के उपयोग का प्रश्न है, कुछ समय पहले चाय के लिए कुल्हड़ की बात भी चली थी पर वह भी व्यावहारिक नहीं पाई गई। वैज्ञानिकोंको प्लास्टिक का विकल्प खोजने के लिए गंभीरतापूर्वक प्रयास करने चाहिए।

’मिलिंद रोंघे, महर्षि नगर, इटारसी