इन दिनों अखबारी व्यंग्य लेखन में एक बात विशेष रूप से नजर आती है कि अब राजनेताओं के नामों का उल्लेख बहुतायत से किया जाने लगा है। केजरीवाल, राहुल, मोदी, ममता, मुलायम, लालू आदि का उल्लेख व्यंग्य रचना में सीधे-सीधे होने लगा है। यह इस विधा के सौंदर्य की दृष्टि से ठीक नहीं कहा जा सकता। सड़क के प्रदर्शनों, आंदोलनों में नाम के जिक्र के साथ जिंदाबाद, मुदार्बाद की परंपरा रही है, लेकिन व्यंग्य तो एक साहित्यिक विधा है और उसकी अपनी गरिमा होती है।
ऐसा नहीं है कि व्यक्तिगत रूप से व्यंग्य नहीं लिखे गए। खूब लिखे गए लेकिन वहां भी इस तरह सीधे-सीधे नाम नहीं लिया गया। व्यंग्य में व्यक्ति की प्रवत्ति पर व्यंग्य होना ही चाहिए, हास्य भी होना ठीक है लेकिन नामजद परिहास या मखौल उड़ाए जाने को मैं निजी तौर पर ठीक नहीं मानता। मगर विडंबना है कि इन दिनों, विशेषकर राजनेताओं के नामों के उल्लेख के साथ उनका मखौल उड़ाते हुए किसी भी लेख को प्रकाशन की लगभग गारंटी की तरह माना जाने लगा है। उसमें भी केजरीवाल और राहुल के नामों को तो स्टार का दर्जा प्राप्त है।
हो तो यह भी रहा है कि यदि लेख की प्रकृति गैर राजनीतिक होती है तब भी किसी तरह इन नामों को घुसेड़ देने के प्रयास दिखाई दे जाते हैं, जबकि विषय वस्तु से उसका कोई तालमेल ही नहीं होता। शरद जोशी सहित सभी श्रेष्ठ व्यंग्यकारों ने राजनेताओं को लेकर तीखे व्यंग्य लिखे हैं मगर वहां भी व्यक्ति नहीं, बल्कि प्रवत्ति पर निशाना लगाया गया। और वे सहज रूप से परिहास के साथ विसंगति और अटपटे आचरण पर कटाक्ष की तरह आते थे। मखौल की तरह तो कतई नहीं।
व्यंग्य को नामजद गालियों की दिशा में जाते देख दुख होता है। बाकी तो जो है सो है ही!
’ब्रजेश कानूनगो, चमेली पार्क, इंदौर</p>