जब राजनीतिक शक्तियां, चाहे वे सत्ता पक्ष की हों या विपक्ष की, खुद को सैन्य व्यवस्था, नौकरशाही, प्रबुद्ध समुदाय, देश की जनता और मजदूर-किसान से ऊपर स्थापित कर लेने का उपक्रम करती हैं तो वैसा ही परिदृश्य उपस्थित होता है जैसा अभी किसानों और सैनिकों की आत्महत्या के रूप में देखा जा रहा है। इसके समांतर सत्ता आत्महत्या करने वालों को पागल करार देकर आत्महत्या के मूल कारणों को ढकने के जुगाड़ में लगी है। इस सत्ता रचित धुंध को छांटते हुए लेख ‘किसके हित में है यह आत्मबलिदान’ (5 नवंबर) उन तमाम कारणों को उजागर करता है जिनके आलोक में रामकिशन ग्रेवाल की वर्गगत मर्मांतक पीड़ा को उसके समूचे आयाम के साथ देखा जा सकता है। यह एक सार्थक उद्घाटन है।
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अरुणेंद्र वर्मा ने ठीक कहा है कि सरकारों की नीतिगत परंपरा रही है कि समस्याओं को सुलझाने का कष्ट न किया जाए तो वे विस्मृति की धूल में दब कर स्वयं सुलझ जाती हैं। साथ ही सरकारों के चरित्र में यह भी ध्वनित होता है कि वे जनता के किसी भी वर्ग को जो कुछ भी देती हैं उसे उन पर एहसान माना जाना चाहिए! सरकारों को यह खूब एहसास होता है कि कम से कम कितना देने से उनका किला सलामत रह सकता है! उससे ज्यादा एक दमड़ी भी देना उन्हें गवारा नहीं होता, फिर चाहे वह मांगने वाले का हक ही क्यों न हो।
’अशोक गुप्ता, इंदिरापुरम, गाजियाबाद