नोट बंद करने के ऐतिहासिक फैसले के बाद देश मे प्रतिक्रियाओं का दौर अब भी उतना ही उथल-पुथल भरा है। विपक्षी दल जहां सरकार का घेराव कर रहे हैं और लामबंद हैं, वहीं प्रधानमंत्री रैलियों के माध्यम से इसे एक ‘युगांतकारी बदलाव’ वाले फैसले के रूप में लोगों के सामने पेश कर रहे हैं। आम जनता सड़कों पर बैंकों मे लाइन लगाए खड़ी है और अर्थशास्त्री इस फैसले का गहन मूल्यांकन करने में जुटे हैं। एक तरह से पूरा देश एक गंभीर चिंतन-सी मनोदशा से गुजर रहा है।

प्रधानमंत्री ने इस फैसले के बाद जनता के साथ कई बड़ी रैलियां कीं, जहां उन्होंने इस फैसले को लोगों के जीवन को बदल देने वाला बताया। लेकिन खासकर बठिंडा की रैली और ‘मन की बात’ पर ध्यान दें तो यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि ज्यों-ज्यों सत्ता का आसन बढ़ता जाता है, व्यक्ति जमीनी हकीकत से उतना दूर चला जाता है। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में किसानों के डिजिटल हो जाने की बात कही। उन्होंने आशय यह था कि फोन ही बैंक है। ऐसा संबोधन सुनने के बाद लगा कि प्रधानमंत्री खुद को जमीनी नेता (सेवक) कहते हैं, लेकिन वे शायद इस बात से अनजान हैं कि किसान ही नहीं, बल्कि किसी भी वर्ग के डिजिटल होने के लिए बुनियादी आधारभूत ढांचे को बहुत मजबूत, सुलभ और अधिक संख्या में सुनिश्चित किया जाना जरूरी है। यहां सच यह है कि एक तरफ किसानों के पास जमीन नहीं है, बैंक दूरदराज कही के इलाकों में कहीं एक हैं, कोई भी सामान बेचने के लिए लोगों को कई-कई किलोमीटर तक जाना होता है, खाद-बाीज के लिए लंबी-लंबी लाइन लगाना पड़ता है, कालाबजारी चरम पर है और सबसे बड़ी बात फसलों को बेच कर उसे तुरंत पैसा चाहिए, दूसरी फसल बोने और परिवार के खर्च के लिए। ऐसे में किसान और खेती को डिजिील बनाना कितना प्रासंगिक है?

दूसरा पहलू इससे भी ज्यादा परेशान करने वाला है। जबसे नोटबंदी का ऐलान हुआ तबसे ‘पेटीएम’ का शोर खूब हो रहा है। प्रधानमंत्री के पोस्टर के साथ साथ खूब प्रचार किया गया कि पेटीएम करो। लेकिन क्या यह उपहास उड़ाने जैसा नहीं था? देश के अधिकतर लोग इस आधुनिकता से अपरिचित हैं। कितने लोग गांव, शहरों, कस्बों में निरक्षर हैं, रोज की छोटी-छोटी जरूरतें भला पेटीएम से कैसी पूरी होगी। शौच के लिए भी दो रुपए क्या पेटीएम से करें? गांव का ही किसान अपनी थोड़ी और आमदनी के लिए छोटी दुकान भी चलाता है। तो क्या अब वह भी पेटीएम कर सकता है? बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में यह कितना कारगर है?भारत जैसे देश मे डिजिटल किसान, पेटीएम जैसी चीजें सुनने में लोक-लुभावन लगते हैं। लेकिन इनके सार्थक होने में हमें कई कमियों को ध्यानपूर्वक समझना होगा और उसे सुलझाना होगा। अन्यथा यह भी किसी सियासी जुमले की तरह ही है!
’आकाश सिंह, दिल्ली विश्वविद्यालय