पिछले कुछ सालों से बड़े जोर-शोर से वैश्वीकरण के गुण पूरी दुनिया में गाए जा रहे थे। एक ऐसा वातावरण बन गया था कि मानो वैश्वीकरण ही दुनिया की हर मर्ज का इलाज है। माध्यमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक की किताबों में इस बात का उल्लेख किया जा रहा था कि वैश्वीकरण होने से दुनिया के तमाम देश और ज्यादा एक-दूसरे के नजदीक आएंगे। विभिन्न देशों की यह नजदीकी उन्हें आपस में एक-दूसरे की समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने में मदद करेगी। यह नजदीकी देशों की आर्थिक गैर-बराबरी को भी समाप्त कर देगी। मगर आज वैश्वीकरण को लेकर जो हालात बनते दिख रहे हैं, वे कुछ और ही कहानी बयान कर रहे हैं।
आंकडों की मानें तो आज दुनिया की निन्यानबे फीसदी संपत्ति महज एक फीसदी लोगों के पास है, जबकि बाकी एक फीसदी संपत्ति में ही दुनिया के निन्यानबे फीसदी लोग गुजारा कर रहे हैं। ऐसे हालात में कौन इस बात को मानने को तैयार होगा कि वैश्वीकरण से दुनिया को लाभ हुआ है या इससे आर्थिक गैर-बराबरी समाप्त हुई है? कौन इस बात पर विश्वास करेगा कि सैद्धांतिक रूप के अलावा असल जीवन में भी वैश्वीकरण खरा उतरा है? आखिर ऐसा क्यों हुआ है कि इस दलील पर जितने भी कदम उठाए गए, वे आखिरकार सबसे गरीब तबकों के खिलाफ साबित हुए?यही वह सच्चाई है जिसके चलते तकरीबन एक शताब्दी पहले पूरी दुनिया में वैश्वीकरण का पर्याय रहा ब्रिटेन आज यूरोप से अलग होने के अंतिम पड़ाव पर है। उधर अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के रूप में एक ऐसे व्यक्ति ने राष्ट्रपति का पद संभाला है जिसकी नीतियां वैश्वीकरण से मेल नहीं खातीं। वहीं जर्मनी जैसे उदार माने जाने वाले देश में भी कट्टर राष्ट्रवादी नेताओं की लोकप्रियता बढ़ने की खबरें भी आ रही हैं।
तो क्या इन सब घटनाओं का यह मतलब नहीं निकलता कि अब दुनिया भर में वैश्वीकरण अपने जीवन के अंतिम दौर में है? आज दुनिया को एक नए रास्ते की जरूरत है जिस पर चलने से देशों की आर्थिक गैर-बराबरी खत्म हो सके, हर किसी को जीवन जीने के लिए मूलभूत सुविधाएं मिल सकें। मगर वह रास्ता क्या है?
’नितीश कुमार, आइआइएमसी, दिल्ली</p>