नोटबंदी के कारण सड़कों पर जगह-जगह दिख रही लोगों की लंबी कतारों ने जैसे देश का हुलिया ही बदल दिया है। आठ नवंबर के बाद जब खुद मुझे चार-पांच बार इस परेशानी का सामना करना पड़ा तो खुद को समझाने और बहलाने के लिए मन में एक गीत का मुखड़ा गुनगुनाती रही कि ‘दुनिया में कितना गम है, मेरा गम कितना कम है।’ ठीक भी है। मैंने धक्के झेले हैं, मुक्के तो नहीं खाए! दो बार खाली हाथ भी लौटना पड़ गया तो क्या हुआ! शादी-गमी जैसी किसी स्थिति से निपटने की कोई जटिल समस्या तो मेरे सामने नहीं थी। वे बेचारे भी तो रब के बंदे हैं, जिनके ऊपर यह शाही फरमान कहर बन कर टूटा है।
वैसे सरकार नोटबंदी को एक महायज्ञ का नाम देकर जनता को इसमें अपनी तकलीफों की आहुति डालने का आह्वान कर रही है। लो जी, जनता का क्या है! उसने तो आपके इस महायज्ञ में सौ से ज्यादा मनुष्यों की ‘बलि’ भी अर्पित कर दी! ढाई बरस पहले देश के आम नागरिक ने पंद्रह लाख रुपए अपने खाते में आने की बात जब आपके मुखारविंद से सुनी थी तो उसका मन-मयूर झूम उठा था। फिर जन-धन खाते भी खूब सारे खुलते गए और पंद्रह लाख की बाट जोहते रहे। एक बात तो है। यह एक से एक मीठे-मीठे नामों वाली योजनाओं की घोषणाओं से जनता का ध्यान भटकाए रखने में सरकार बहुत कामयाब रही है, इसमें जरा-सा भी संदेह नहीं।
अभी भी सरकार के प्रति इस भोली-भाली जनता का विश्वास उतना नहीं डगमगाया। मैंने घंटों लाइन में खड़े होकर लोगों की बातें बड़े ध्यान से सुनी हैं। अमीरों द्वारा पांच सौ या हजार के नोटों को फाड़ने, आग में जलाने या पानी में बहाने के नजारों ने गरीबों का काफी मनोरंजन भी किया है। अमीर मालिक का तमाचा खाने वाले नौकर को मालिक का तमाशा देखने का मौका भी अभी मिला है। पर अनुभवी लोगों की नजरें इस स्थिति को भी शंकाओं और सवालों के घेरे में ले आर्इं। दो-चार दिनों में ही बोरों में भरे हुए जो नोट फाड़ डाले, जला-बहा डाले, क्या वे असली ही थे? राजनीति में नौटंकी चला ही करती है। जनता को मूर्ख बनाने के लिए कुछ भी किया जा सकता है।
दरअसल, काला धन आदमी की मानसिकता की उपज है। अस्वस्थ मानसिकता को बदलने के लिए हर स्तर पर ईमानदारी से प्रयास किए जाने चाहिए। बैंक एक भव्य मंदिर के बाहरी हिस्से में है। लंबी कतार में खड़े हुए मेरा ध्यान चबूतरे के नीचे गंदगी और बदबू से सनी नाली की तरफ चला गया और नोटबंदी की बात भूल कर मैं स्वच्छता अभियान और आदमी की इस सोच पर सोच-विचार करने लग गई।
’शोभना विज, पटियाला

