कुल मुद्रा चलन के छियासी प्रतिशत नोट बंद कर कालेधन को उजागर करने का दावा करने वाले मोदी के हाथ कुछ न लगने से अब बगलें झांकने और बात को घुमाने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा है। उसके साथ ‘गए थे हरि भजन को, ओटन लागे कपास’ वाली कहावत चरित्रार्थ हो रही है। लेकिन उनके इस हठधर्मी प्रयोग के दुष्प्रभाव का असर जनता भुगत रही है। मोदी अब कालाधन पर कम और ‘कैशलेस’ पर ज्यादा जोर दे रहे हैं। जिस देश में अठहत्तर प्रतिशत करोबार नगद लेन-देन पर टिका हो और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पूरी तरह नगदी पर आधारित हो, उसे हताशा के वशीभूत अब रातों-रात जबरन कैशलेस बनाने की बात की जा रही है। हैकरों से चाक-चौबंद और बिना घपलों की जांच किए वे जनसभाओं में अपने एक हाथ को मोबाइल की नाटकीयता देकर उस पर दूसरे हाथ से अंगुलिया चला कर मोबाइल से भुगतान और व्यवहार को समझाते नजर आते हैं। उनकी ‘कालेधन वालों को बख्शेंगे नहीं’ की हुंकार अब बेमानी हो चुकी है।

‘बड़ों की नहीं, छोटों की बढ़ी इज्जत’ का बार-बार दिल बहलाव का गाया जाने वाला उनका गीत बिना संगीत का बेसुरा हो गया है। यह बात अब किसी को हजम नहीं होती। जो मरे हैं, पीड़ित हैं, उनमें कोई अमीर नहीं, बल्कि गरीब और अभाव पीड़ित हैं। सक्षम न तो लाइन में आया और न ही दुष्प्रभावित हुआ, क्योंकि सरकार उसकी खिदमत में है। जिस 2000 रुपए के एक नोट के लिए आम लोग लाइन में लगे हैं, उसकी गड्डियां भारी पैमाने पर भाजपा नेताओं के पास से पकड़ी जा रही हैं। ये गड्डियां कहां से आए, इसकी सच्चाई कभी हमारे सामने आ नहीं पाएगी। ऊंट के मुंह में जीरे समान आई छापेमारी की घटनाएं पिछले दरवाजे पर लगा सरकार का कैमरा नहीं, बल्कि शायद कमीशन के लेन-देन की आपसी रस्साकशी के महीन धागे का नतीजा है।

जितनी प्रचलित मुद्रा बैंकों में जमा हुई अब तक उसका एक-तिहाई हिस्सा ही वापस चलन में आ पाया है। इसके दुष्प्रभाव में सबसे ज्यादा असंगठित कामगार और छोटे कारोबारी है। हमारे देश में कुल कामगारों का तिरानवे प्रतिशत असंगठित क्षेत्र से जुड़ा है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने एक लेख में स्वीकार किया है कि देश के नब्बे प्रतिशत कामगार नगद में अपनी मजदूरी पाते हैं। जब प्रचलन से छियासी प्रतिशत नोट बाहर हो गए तो छोटे नोटों का कोई अर्थ नहीं रह गया। नोटबंदी ने करोड़ों लोगों की आजीविका को चौपट कर दिया।यह नोट-त्रासदी अर्थव्यवस्था को निरंतर चौपट कर रही है। उत्पादन गिरावट के हालिया आंकड़े इसकी तस्दीक करते हैं। वित्तीय क्षेत्र में सन्नाटा है। जिस बीमा क्षेत्र में रोजाना करोड़ों की प्रीमियम आती थी, वहां महज लाख के लाले पड़े हैं। इस चौतरफा हाहाकार से मोदी अनजान नहीं हैं। पर वे हलके तर्कों से इसे और उलझाए जा रहे हैं। वे संसद में तो उठाए सवालों को जवाब नहीं देते, पर जनसभाओं में जाकर झूठ पर झूठ बोल रहे हैं, क्योंकि वहां कोई सवाल करने वाला नहीं, बल्कि ताली पीटने वाले तमाशबीन हैं। जिन छोटों या कमजोरों को वे ‘मान’ मिलने की बात कर रहो हैं, बाजार में उन्हें कितनी किल्लत और जिल्लत सहनी पड़ रही है, क्या इसका उन्हें भान नहीं है?
’रामचंद्र शर्मा, तरूछाया नगर, जयपुर</p>