‘आतंक का सिरा’ (संपादकीय, 27 अगस्त) पढ़ा। दरअसल, पिछले साल चौदह फरवरी को पुलवामा आतंकी हमले ने समूचे देश को दहला दिया था। इस घटना का विश्लेषण करने पर लगता है कि निश्चित रूप से यह मात्र एक सामान्य आतंकी हमला नहीं था, बल्कि एक गहरी साजिश के तहत सामूहिक हत्या की घटना थी।

अफसोस कि इस मामले में जांच का काम जितनी गंभीरता से होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। यहां तक कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी भी दिशाहीन लग रही थी। लेकिन आश्चर्य की बात है कि अब वही राष्ट्रीय जांच एजेंसी तेरह सौ पचास पन्नों का आरोप-पत्र दाखिल करती है, जिसमें उसने उस हमले के लिए पाकिस्तानी गुप्तचर संस्थान आइएसआइ और वहां के दुर्दांत आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर और उसके सहयोगियों के मिलीभगत को जिम्मेदार बताया है।

हो सकता है कि संवेदनशील मामलों में गोपनीयता बरतने की जरूरत पड़ती हो, लेकिन यह सवाल बना रहेगा कि एक अतिसंवेदनशील इलाके और तमाम चौकसी के बावजूद कोई ढाई-तीन सौ किलो विस्फोटक लेकर कैसे अपनी मंशा को अंजाम दे गया।

जाहिर है, आतंकी हमले में पाकिस्तानी ठिकानों से काम करने वाले आतंकवादी संगठनों और दूसरे संबंधित पक्षों को कठघरे में जरूर खड़ा किया जाए, लेकिन हमारी तरफ से भी कहां लापरवाही बरती गई, इसकी भी सघन जांच हो। यह इसलिए जरूरी है कि देश को नुकसान पहुंचाने वाली किसी भी ताकत के चेहरे पर से पर्दा हटना चाहिए।
’निर्मल कुमार शर्मा, गाजियाबाद, उप्र