मौजूदा दौर में दुनिया में शांति और एकता बनाए रखना आसान काम नहीं है। कुछ कूटनीतिक षड्यंत्र और कुछ अलगाववादी सोच हिंसा फैलाने के लिए पर्याप्त होती है। कई देशों में तो हिंसा इस कदर भड़क गई है कि स्थानीय लोग जीवन की परिभाषा तक भूल गए हैं। इसके बावजूद कुछ शांति दूतों ने एकता अभियान को एक छोर से चालू रखा है। हालांकि ऐसे लोगों को पग-पग पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, पर ऐसे प्रयासों की वजह से देर-सवेर बहुसंख्यक लोग सही राह पकड़ लेते हैं।

म्यांमा की शांति के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की अपनी विचारधारा के साथ वर्षों से निरंतर समाज में मौजूद जटिलताओं का समाधान निकलने में लगी हैं। हालांकि रोहिंग्या मुद्दे को देख कर लग रहा था कि वे चुनाव हार जाएंगी, क्योंकि यह मानवता पर सबसे बड़ी समस्या के रूप में उभर रहा था। आंग सांग सू की के ऊपर आंखे तानने वालों की कमी नहीं थी, लेकिन शांति दूत पर लोगों को आज भी भरोसा है।

अब उनके सामने यह एक बड़ी चुनौती है कि वे रोहिंग्या मुद्दा से उपजी एक बड़ी समस्या का समाधान करें और म्यांमा को बेहतर स्थिति में ले जाएं। गौरतलब है कि म्यांमार एशिया रणनीतिक सहयोग में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसलिए शांति और सद्भावना की कसौटी पर म्यांमा का खुद एक आदर्श उदाहरण बन कर पेश करना जरूरी है।

दूसरी ओर, इथियोपिया के उत्तरी राज्य तिगरे में फिर से हिंसा की लपटें फैल चुकी है। नोबेल पुरस्कार विजेता अबेय अहमद पर शांति बनाने का दवाब बढ़ता जा रहा है। यह दौर नोबेल पुरस्कार विजेताओं के लिए चुनौती लेकर आया है। उम्मीद है कि ये शांति दूत अपने सिद्धांतों को सही दिशा में उपयोग कर भटकती मानव सभ्यता को संकटों से उबारने में सफल होंगे।
’सुनील चिलवाल, हल्द्वानी, उत्तराखंड

कैसे बचेगी विविधता

जैव विविधता संरक्षण के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमें प्रजाति अभिज्ञान की समझ हो। कोई प्रजाति तभी बचाई जा सकती है, जब उसके गुण-दोषों से जनमानस का परिचय हो। हरित क्रांति के दौरान भारत लाए गए गाजर घास (पार्नेथियम) को अगर लगातार पांच दिनों तक साफ किया जाए तो फिर मजदूर को अस्थमा जैसी घातक बीमारी पकड़ सकती है।

गांवों में गाजर घास अगर मवेशी खा लें, तो उन्हें दस्त हो जाता है। आवश्यकता है इसी गुण-दोष को सेमिनार एवं प्रतियोगिताओं के माध्यम से सबसे निचले स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने की। तभी जैव विविधता को वास्तविक रूप में संरक्षित किया जा सकता है।

दूसरी महत्त्वपूर्ण चीज, जिसके द्वारा जैवविविधता को बचाया जा सकता है वह है इको-फेमिनिज्म की अवधारणा को सुदृढ़ करना। इकोफेमिनिस्ट स्त्री और प्रकृति के संबंधों की व्याख्या करते हैं। महिलाएं प्रकृति के बहुत करीब होती हैं और यह कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि वे भी प्रकृति की एक प्रतिमूर्ति ही हैं, क्योंकि जिस प्रकार प्रकृति पारिस्थितिकी तंत्र को पैदा करने में सक्षम है, उसी प्रकार महिलाएं भी मानव को जन्म देकर प्राकृतिक चक्र को पूर्ण करती हैं।

अगर महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा मौका दिया जाए तो जैवविविधता संरक्षण में उनकी भूमिका एक क्रांतिकारी कदम साबित हो सकता है। तीसरी महत्त्वपूर्ण चीज यह है कि जिसके द्वारा जैवविविधता को रक्षित किया जा सकता है, वह है विकास के आयाम में बदलाव। जो विकास आज मूल रूप से धन-संचयन एवं आर्थिक लोलुपता के कारण प्रकृति को नोच रहा है, उसे बस सीमित करने की।

अगर हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रथम स्थान पाने इच्छा छोड़ कर विकास को सीमित करने की ओर कदम बढ़ाएं तो फिर जैवविविधता और प्रकृति फिर अपने वास्तविक रूप में लौट जाएंगे। ’उद्भव शांडिल्य, दिल्ली विवि, दिल्ली