वित्त मंत्री द्वारा महामारी के मौजूदा हालात में बजट पेश किया जाएगा। महामारी की वजह से लगाए गए आंशिक पूर्णबंदी से बेपटरी हुई अर्थव्यवस्था के बाद आ रहे इस बजट से लोगों को काफी उम्मीदें हैं। युवाओं से लेकर नौकरी पेशा वाले लोग और सेवानिवृत्त हो चुके बुजुर्ग, प्रवासी मजदूर एवं महिलाएं- सभी अपनी उम्मीद लगाए हैं। ऐसे में देखना होगा कि यह आम बजट लोगों की अपेक्षाओं को कहां तक पूरा कर पाता है।
जहां युवाओं को शिक्षा के प्रति उम्मीद है, वहीं नौकरीपेशा लोग एक निश्चित आय को करमुक्त होने की आशा लगाए हैं। लोगों का मानना है कि धारा 80-सी के तहत जो अधिकतम दो लाख तक की छूट मिलती है, उसे दोगुना किया जाए। इससे खरीदारी बढ़ेगी और रियल स्टेट सेक्टर में तेजी आएगी। यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि बजट की एक घोषणा से रसोईघर का संतुलन बिगड़ सकता है। ऐसे में खाद्य पदार्थों के बढ़ते दाम पर लगाम लगाए जाने की उम्मीद है, वहीं कामगारों के सामने रोजगार का संकट है।
वित्तमंत्री द्वारा पेश किए जाने वाले बजट से हमारे पास उम्मीद बांधने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। यह जानते हुए कि जिस आधार पर देश का बजट तैयार होता है, वह इस समय काफी कमजोर स्थिति में है। महामारी और पूर्णबंदी की वजह से अर्थव्यवस्था जिस तरह से गोते लगा चुकी है, उसका उल्लेख करना आवश्यक नहीं है।
सकल घरेलू उत्पाद के तेजी से गिरने की वजह से सरकार का राजस्व बहुत गिर चुका है। देखना होगा कि पेश किए जाने वाले बजट में मध्यमवर्गीय जीवनयापन करने वाले लोगों के लिए कोई राहत वाली बात होती है या नहीं। बजट के संदर्भ में कहा जाता है कि यह न सिर्फ बजट होता है, बल्कि यह सरकार की प्राथमिकताओं का एक दस्तावेज भी होता है। ऐसे में अब यह देखने योग्य है कि सरकार अपनी प्राथमिकता को किस तरह दर्शाती है।
- अनुज कुमार शर्मा, जौनपुर, उप्र
चुनाव के साथी
चुनाव और धर्म ऐसे साथी हैं, जो आजाद भारत के साथ बढ़ते चले आ रहे हैं। पर बीते कुछ वर्षों में धर्म की राजनीति ने दोनों साथियों का ऐसा तख्तापलट किया है कि ये साथी अब साथ निभाने भर सीमित नहीं रहे। चुनावों में धर्म का हावी होना उतना ही जरूरी माना जाने लगा है, जितना चुनावों में चिह्न का। चुनाव के वक्त काम के नाम पर धार्मिक स्थलों के निर्माण का काम गिनाया जाता है और चुनावी वायदे में धर्म की प्रगति। विकास का स्तर मंदिर-मस्जिद तक सीमित रह गया है। चाहे बाहर बेरोजगारी से भिखारियों की संख्या धार्मिक स्थलों के दरवाजे पर बढ़ती ही क्यों न चली जा रही हो।
धर्म की शक्ति इतनी बढ़ गई है कि विकास इसके सामने बौना दिख रहा है। शायद यही वजह है कि भारत विकासशील से विकसित देशों की सूची में आज तक नहीं जा पाया। और आज विकासशील देशों की सूची से भी बाहर आने को है। चुनावों में धर्म का राजनीति ऐसी ही चलती रही तो आजादी की जद्दोजहद में विकास का जो सपना हमारे शहीदों ने देखा था, वह धुंधला पड़ जाएगा।
- माहिरा गौहर, नवादा, बिहार</li>