करीब तीन साल पहले जब नोटबंदी हुई थी तब इसे भ्रष्टाचारियों, आतंकवादियों और जमाखोरों के विरुद्ध एक ऐतिहासिक कदम बताया गया था। बाद के दिनों में भ्रष्टाचारियों, आतंकवादियों और जमाखोरों पर कितना लगाम कसा जा सका, इसके बारे में कोई अध्ययन सामने नहीं आया।
लेकिन उसके बाद के समय में आतंकवादियों द्वारा पाकिस्तानी सीमा पर हमारे जवानों की वीभत्स तरीकों से हत्या करके उनके शवों के साथ अपमानजनक और घिनौना व्यवहार करने की घटनाएं अप्रत्याशित रूप से और बढ़ गर्इं।
आम जनता, छोटे व्यापारियों और छोटे उद्योगों को होने वाली अकथ्य परेशानियों और उनके तालाबंदी तक की नौबत आने की खबरें और देश के करोड़ों असंगठित और दिहाड़ी मजदूरों को बेरोजगार होकर अपने घरों को लौटने, नकदी के अभाव में किसानों को बीज खरीदने और खेतों को बोने तक में परेशानी हुई।
तैयार फसलों को ग्राहक के अभाव में औने-पौने दाम पर बेचने को बाध्य होना पड़ा। इसके अतिरिक्त सबसे दुखद यह समाचार आया कि नकद पैसों के लिए बैंकों की लाइन में खड़े-खड़े सौ से ज्यादा साधारण लोगों की मौत हो गई।
इसके अतिरिक्त नोटबंदी के बाद नए नोटों के लिए पुराने एटीएम सें संचालित करना बहुत कठिन था। इसके लिए भी भारी खर्च हुए और हो रहे हैं। इस खर्च से बचने के लिए ज्यादातर बैंक निकट भविष्य में अपने लगभग एक लाख एटीएम बंद करने की सोच रहे है।
भारतीय बैंकों की आर्थिक स्थिति को पहले ही बड़े पूंजीपति डिफॉल्टरों और बैंकों के खरबों रुपए लेकर विदेश भागने वाले बड़े आर्थिक भगोड़ों और माल्या, चोकसे और नीरव मोदी जैसों ने वैसे ही दिवाला निकाल दिया है।
इन सबके के बावजूद आज भी बार-बार नोटबंदी का फायदा गिनाया जाता है, जिसका कोई आधार नहीं है। पिछले दिनों रिजर्व बैंक के भूतपूर्व गवर्नर ने कहा कि नोटबंदी से देश की आर्थिक प्रगति को जबर्दस्त धक्का लगा है। अब कई विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री भी इसी बात हो बोल रहे हैं।
इसकी सबसे ज्यादा मार असंगठित क्षेत्रों पर पड़ी। इस फैसले कोई खास वजह नहीं थी। यह किसी से छिपा नहीं है कि उस फैसले से सामान्य गति से चल रही भारतीय अर्थव्यवस्था पटरी से उतरी। सबसे ज्यादा नुकसान भारत के गरीबों, वंचितों, मजदूरों, किसानों और साधारण लोगों को हुआ, जिसकी भरपाई मुश्किल होगी।
’निर्मल कुमार शर्मा, गाजियाबाद, उप्र
सब धर्म समान
धर्म ने मानव सभ्यता को सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया है। धर्म किसी स्थान, काल, रंग, व्यक्ति के अधीन नहीं है। धर्म सबके लिए समान है। हाल ही में शांति की संस्कृति पर संयुक्त राष्ट्र की चर्चा में भारत ने इब्राहीम धर्मों- इस्लाम, ईसाई और यहूदी धर्म की रक्षा पर ‘चयनात्मक’ होना और शेष धर्मों को मदद न करने पर विश्व समुदाय की आलोचना की है।
संयुक्त राष्ट्र को सभी धार्मिकों के खिलाफ घृणा की निंदा करनी चाहिए। घृणा सभ्यता का दुष्ट रूप है और इसके खिलाफ पूर्व या पश्चिम में समान रूप से व्यवहार किया जाना चाहिए। हिंदू धर्म, सिख और बौद्ध धर्म को भी संयुक्त राष्ट्र के तहत संरक्षण की आवश्यकता है।
आखिर एशिया के धर्मों में क्या कमी है? यहां की जनता विश्व की अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी है। इसलिए इनके धर्म की रक्षा करनी चाहिए। कोई मजहब असमानता नहीं सिखाता।
’सुनील चिलवाल, पीलीकोठी, उत्तराखंड</p>