आजादी के सत्तर साल बाद भी भारतीय कृषि और किसान दिन-प्रतिदिन पिछड़ते जा रहे हैं। इसका मुख्य कारण कृषिगत नीतियों में कमीशन की राजनीति है, क्योंकि पहले भी कृषि के विकास के लिए जो भी नीतियां बनाई गर्इं, वे किसानों के हित में न होकर औद्योगिक घरानों के हित में रहीं। मसलन, प्रथम हरित क्रांति के कृषिगत नीतियों से किसानों को लाभ नहीं मिला, लेकिन औद्योगिक घरानों को बीज, कृषि यंत्र और खाद बेच कर बेलगाम लाभ मिल गया। प्रथम हरित क्रांति के कारण कुछ समय के लिए ही सीमित अनाजों, जैसे गेहूं, धान का उत्पादन बढ़ा, लेकिन बाद में उत्पादन और भूमिगत जल के स्तर में गिरावट आई।
वर्तमान समय में कृषि नीतियां, जैसे सिंचाई के लिए नहरों को नदियों से जोड़ने, जल संचयन आदि परंपरागत सिंचाई की तकनीकों को बढ़ावा नहीं दिया जा रहा है, बल्कि कंपनियों के हित में भूमिगत जल निकालने के लिए सिंचाई यंत्र उन्मुख योजना बनाया गया है, क्योंकि सिंचाई यंत्र बिक्री पर कमीशन निर्धारित किया गया है। दूसरे, फसल बीमा योजना में किसानों के खाते से फसल बीमा की राशि कंपनियों के खाते में हस्तांतरण कर दी जाती है। साथ-साथ राज्य और केंद्र सरकार भी कंपनियों को बाकी बीमा की राशि भेज देती हैं। जब किसान को फसल-नुकसान हो जाता है तो वे अपनी बीमा राशि का दावा करते हैं। लेकिन बीमा कंपनियां बहुत सारे दस्तावेज, नियम और शर्तों में किसान को उलझा देती हैं। बहुत कम किसान इस प्रक्रिया को पूरा कर पाते हैं और बीमा की राशि कंपनियां हजम कर जाती हैं।
कृषिगत नीतियों का निर्माण किसानों के हित में इसलिए नहीं किया जाता है कि किसान कमीशन देने में अक्षम होते हैं। दूसरी ओर, औद्योगिक घरानों के उत्पाद, जैसे फसल बीमा, सिंचाई के लिए यंत्र, रासायनिक खाद, कीटनाशकों आदि को बाजार में लाने के लिए किस स्तर पर कमीशनखोरी होती है, यह सामने नहीं आ पाता। सवाल है कि आखिर क्यों कृषि नीतियों का निर्माण किसान हित में न होकर, औद्योगिक घरानों के हित में होता है!
’चंदन कुमार, दिल्ली विवि