इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शिक्षा में कितनी दिलचस्पी रखते हैं यह हमें नहीं मालूम लेकिन उनके फैसले के आलोक में शिक्षा के संबंध में यह निहितार्थ निकाला जा सकता है कि सरकारी अधिकारी के बच्चे भी यदि सरकारी विद्यालयों में पढ़ें तो उन विद्यालयों की स्थिति अच्छी हो सकती है।
यह फैसला इस बात का प्रमाण है कि आज भी भारत में कुछ सूत्रधार सेवक ही समस्या के संकटमोचक हैं। जबकि एक सार्थक लोकतंत्र में सूत्रधार और संकटमोचक देश की जनता को होना चाहिए। सरकारी अधिकारी का बच्चा सरकारी विद्यालय में पढ़ेगा तो विद्यालय की प्रशासनिक और अकादमिक दोनों गतिविधियों में सुधार आएगा- इसका तात्पर्य है कि आज भी व्यवस्था के नीति निर्माण में कुछ मुट्ठी भर लोगों का योगदान है।
हमें उस दिन की प्रतीक्षा करनी चाहिए जब हरिचरना अपने बच्चे-बच्चियों को पढ़ाने के लिए खुल कर स्कूल नीति नियंताओं के समक्ष प्रशासनिक और अकादमिक बिंदुओं की तरफ इशारा कर सकेगा।
विद्यालय अपने समाज का अहम हिस्सा होता है। जाहिर है कि उसमें पढ़ने वाले बच्चे उसी समाज का हिस्सा होंगे। लेकिन दुर्भाग्य है कि ऐसा नहीं है। हमारे समाज में जैसे अलग-अलग लोग हैं उसी प्रकार अलग-अलग विद्यालय भी। मसलन, दो सौ, चार सौ, हजार, दस हजार रुपए और मुफ्त के विद्यालय आदि। अब हम देख सकते हैं कि समाज का विभाजन किस तरह हो रहा है।
दो सौ रुपए वालों का अलग समाज तैयार हो रहा है, हजार और दस हजार वालों का अलग और निशुल्क वालों का अलग। जब हम इसे मूर्त में देखते हैं तो पता चलता है कि एक विद्यालय जिसमें दयनीय मजदूर के लड़के, एक विद्यालय जिसमें किसान के बच्चे, एक विद्यालय जिसमें कम पढ़े जागरूक परिवार के बच्चे और एक ऐसा विद्यालय जिसमें तथाकथित संभ्रांत और उच्च आय वर्ग के बच्चे शामिल हैं।
समानता-समानता की रात-दिन रट लगाने वाले व्यक्ति को समाज की यह महीन रेखा दिखती ही नहीं है। क्या हम अपने समाज में इस तरह के विद्यालय की परिकल्पना नहीं कर सकते जहां राजा भोज और गंगू तेली का लड़का साथ-साथ पढ़ें; जहां राजा भोज और गंगू तेली का लड़का एक-दूसरे की सच्चाई जान कर बेहतर समाज के निर्माण में मदद कर सकें।
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