जनसत्ता 2 अक्तूबर, 2014: तवलीन सिंह ने ‘वक्त की नब्ज’ (28 सितंबर) स्तंभ में कोयला घोटाले से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर टिप्पणी करते हुए सार्वजनिक क्षेत्र के कोयला उपक्रमों और वामपंथी कहे जाने वाले बुद्धिजीवियों को आड़े हाथों लिया। वे तर्क देती हैं कि कोयला खदान आबंटन के तमाम लाइसेंस रद्द करने की सजा आम नागरिकों को भुगतनी पड़ेगी, जो कि पहले ही बिजली की किल्लत से जूझ रहे हैं। उनके अनुसार कोयले के अभाव में बिजलीघर बंद पड़े हैं। यह समस्या का एक दिलचस्प पहलू है और अगर इस नजरिए से सोचा जाए तो फिर बंगलुरू की विशेष अदालत की जे जयललिता को सुनाई गई सजा भी कम चिंता का विषय नहीं है। पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय ने जन-प्रतिनिधित्व कानून के इस प्रावधान को निरस्त कर दिया था कि अदालत से दोषी करार दिए गए जन-प्रतिनिधि मामला लंबित रहने तक अपनी सदस्यता जारी रख सकेंगे। यदि लेखिका के दृष्टिकोण से विचार किया जाए तो इसका खमियाजा तमिलनाडु की जनता को भुगतना पड़ेगा, क्योंकि राज्य के नए मुख्यमंत्री पूरे प्रदेश का शासन-प्रशासन संभालने में जयललिता जितने अनुभवी तो नहीं होंगे!

सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यपद्धति जग-जाहिर है। लेकिन तवलीन सिंह के विश्लेषण को पढ़ कर मन में जो सवाल कुलबुला रहे हैं, वे ये कि क्या सार्वजनिक क्षेत्रों के कोयला उपक्रमों के बरक्स निजी क्षेत्र की कोयला कंपनियों के साथ नरमी बरती जानी चाहिए? सार्वजनिक क्षेत्र की ‘अकर्मण्यता’ के विपरीत निजी क्षेत्र में जो कर्मठता देखने को मिलती है, उसका उद्देश्य क्या जनहित है? वक्त की नब्ज से वास्तव में वाकिफ लोग बाजार और मुनाफे के खेल खूब समझते हैं।

तवलीन सिंह का वामपंथियों के प्रति गुस्सा जायज है। उनकी इस दलील को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि निजीकरण के खिलाफ शोर मचाने वाले सरकारी कंपनियों के नाकारापन पर क्यों चुप रह जाते हैं? लेकिन स्तंभकार की अति कृपा होगी यदि वे फायदे में चल रहे सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण के विषय में अपने विचार स्पष्ट कर सकें। साथ ही उनसे यह भी समझना चाहेंगे कि जिन सार्वजनिक उपक्रमों के घाटे में चलने की दुहाई निजीकरण के पैरोकार दिया करते हैं, उस घाटे के सौदे को मुनाफापरस्त पूंजी क्यों खरीदना चाहती है? निजी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ाई जाती हैं, क्या इसके खिलाफ कार्रवाई नहीं होनी चाहिए? आज की तारीख में निजी क्षेत्र के कर्मचारियों को जैसे-तैसे आत्मसात कराया जा रहा है कि मालिक जितना देगा उससे कहीं गुना ज्यादा काम ही लेगा। क्या यही है निजी क्षेत्र का ‘वर्क कल्चर’?

नितिन नारंग ‘समर’, दिल्ली

 

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta